पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१५७

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राक्षस-( दुःख से श्राप ही आप ) देव न हमार विनाश का द्वार भव खोल दिया । हृदय ! स्थिर हो, अभी न जाने क्या क्या कोई तुमको सुनना होगा । (प्रकट ) भद्र ! हमने भी स ना है कि वह २१० साधु अत्यत मित्रवत्सल है। उन्हें क्या हुआ ? - पुरुष-वह जिष्णुदास के अत्यन्त मित्र हैं। राक्षस -(भाप ही आप ) यह सब हृदय के हेतु शोक का बज्रपात है। (प्रकाश ) हाँ भागे। ___पुरुष-सो जिष्णुदास ने मित्र की भाँति चंद्रगुप्त से बहुत विन किया। राक्षस-क्या क्या ? पुरुष-कि देव ! हमारे घर में जो कुछ कुटुंबपालन का द्रव्य . भाप सब ले लें, पर हमारे मित्र चंदनदास को छोड़ दें। राक्षस-(आप ही आप ) वाह मिष्णुदास ! तुम धन्य हो ! २॥ तुमने मित्र-स्नेह का निर्वाह किया। जा धन के हित नारी तर्जे पति, पूत तर्जें पितु सीबहि खोई । माई सों भाई नरें रिपु से, पुनि मित्रता मित्र तजै दुख जोई ॥ ता धन को बनिया है गिन्यौ न, दियो दुख मीत सों भारत होई। स्वारय अर्थ तुम्हारोह है तुमरे सम और न या जग कोई ॥ (प्रकाश ) इस बात पर मौर्य ने क्या कहा ? पुरुष-मार्य । इस पर चंद्रगुप्त ने उनसे कहा कि "जिष्णुदा हमने धन के हेतु चदनदास को दंड नहीं दिया है। इसने श्रम राक्षस का कुटुम्ब अपने घर में छिपाया और बहुत माँगने पर न दिया। अब भी जो यह दे दे तो छूट जाय, नहीं तो इसको : प्राणदंड होगा, तभी हमारा क्रोध शांत होगा और दूसरे लोगों के इससे डर होगा।" यह कह उसको वध्यस्थान में भेज दिया । जि दास ने कहा कि "हम कान से अपने मित्र का अमंगल स न पहले मर जाय तो अच्छी बात है और अंत में प्रवेश करने वन में चले गए। हमने भी इसी हेतु, कि उनका मरण न स .,