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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१६७

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नंद नेह छुटयौ नहीं, दास भए भरि साथ । ते तरु कैसे काटि हैं, ये पाले निज हाथ ॥ . कैसे करिहैं मित्र पै हम निज कर सों घात । अहो भाग्य गति अति प्रबल, मोहिं कछु जानि न जात ॥ (प्रकाश) अच्छा विष्णुगुप्त ! मँगाओ खत 'नमस्सवक प्रतिपत्तिहेतवे सुहृत्स्नेहा" देखा, मैं उपस्थित हूँ। चाणक्य-( राक्षस को खा देकर हर्ष से ) राजन् वृषल ! व है ! बधाई है ! अब अमात्य राक्षस ने तुम पर अनुग्रह किया। तुम्हारी दिन दिन बढ़ती ही है। राजा-यह सब आपकी कृपा का फल है। [पुरुष आता है ] पुरुष-जय हो महाराज की, जय हो महाराज | भद्रभंट, । रायणादिक मलय केतु को हाथ पैर बाँध कर लाए है और द्वाः खड़े हैं। इसमें महाराज की क्या आज्ञा होती है ? चाणक्य-हाँ सुनो। मजी! अमात्य राक्षस से निवेदन व अब सब काम वही करेंगे। राक्षम्र-(आप ही आप ) कैसा अपने वश में करके मुभ कहलाता है । क्या करें.? (प्रकाश.) महाराज चंद्रगुप्त ! यह तो जानते ही हैं कि हम लोगों का मलयकेतु का कुछ दिन तक रहा है इससे उसका प्राण तो बचाना ही चाहिये । राणा (चाणक्य का मुंह देखता है .) चाणक्य-महाराज! अमात्य राक्षस की पहली बात तो । माननी ही चाहिये ( पुरुष से) अजी। तुम भद्रभटादिकों से दो कि "अमात्य राक्षस के कहने से महाराज. चंद्रगुप्त मलयवे उसके पिता का राज्य देते हैं। इससे तुम लोग सग जाकर राज पर बिठा भाभो। . पुरुष-जो आज्ञा।