पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१६९

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परिशिष्ट-क इस नाटक के आदि-अंत तथा अंकों के विश्रामस्थल में "रंगशाब में ये गीत गाने चाहिएँ । यथा- (सब के पूर्व मंगलाचरण में ) (ध्रुवपद चौताला) जय जय जगदीश राम, श्याम धम पूर्ण काम । आनंदधन ब्रह्म विष्णु, सचित सुखकारी॥ कंस रावनादि काल, सतत प्रनत भकपाल । सोभित गल मुक्तमाल, दोन ताप हारी। प्रेमभरन पापहरन, असरन-जन सरन-चरन । सुखहि करन दुखहि दरन, बृंदावनचारी ॥ रमावास जगनिवास, राम रमन समनत्रास । बिनवत 'हरिचंद' दास, जय जय गिरिधारी॥ ... (प्रस्तावना के अंत तथा प्रथम अंक के श्रारंभ में) थै[बाल-ससन की उमरी "शाहजादे आलम तेरे लिए" इस बात की] जिनके हितकारक पंडित हैं तिनकों कहा सत्रुन को डर है। समुझे जग मैं सब नीतिन्ह जो तिन्हैं दुर्ग विदेस मानो घर है। जिन मित्रता राखी है लायक सौ सिनकों तिनका हू महा सर है। जिनकी परतिज्ञा टरै न कयौं तिनको जय ही सब ही थर है ॥२॥ (प्रथम अंक की समाप्ति और दूसरे अंक के प्रारम्भ में) जग मैं घर की फूट बुरी। घर के फूटहिं सों बिनसाई सुबरन लंकपुरी॥ फुटहिं सों सब कौरव नासे भारत जुद्ध भयो। जाको घाटो या भारत में अब लौं नहिं पूजयो । फूटहि सों जयचंद बुलायो जवनन भारत धाम। जाको फल भव नौं भोगत सब भारज होह गुलाम ॥