पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१७

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है। वह शुद्ध इतिहास से लिया गया है। नाटक का मुख्य उद्देश्य है चाणक्य द्वारा स्थापित प्रथम मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त की राज्य श्री की स्थिरता, जिसके लिए नन्द वंश के पुगने स्वामिभक्त मन्त्री राक्षस को, जो मौर्य वंश से शत्र भाव रखता था, मिलाना ध्येय रखा गया । भाषा नाटक के विषयानुकूल है। यदि इसमें महाकवि कालिदास के नाटकों का माधुर्य या सौंदर्य हुँदा जाय तो अवश्य ही न मिलेगा पर उसका न मिलना ही इस नाटक की विशेषता है। इसकी भाषा जोरदार तथा व्यावहारिक है और कहीं कहीं कुछ हास्यरस का भी पुट दिया गया है।

इस नाटक में एक विचित्रता यह है कि इसमें स्त्री पात्रों का अभाव सा है और श्रृंगार तथा करुण रस का संसर्ग भी नहीं होने पाया है। यद्यपि अन्तिम अङ्क में चन्दनदास की स्त्री रंगमंच पर आती है, पर वह भी नीरस, कठोर कर्तव्य-पालनोम्मुखी तथा स्वार्थत्यागिनी के रूप में प्रदर्शित है। उसके पास भी करुण रस नहीं फटकने पाया, तब श्रृंगार की कहां पूछ होती है। नाटककार ने लिख ही दिया है कि 'कलत्रमितरे सम्पतसु चरपत्सुच, ( अङ्क १ श्लो०८५.) अर्थात् राजनीतिज्ञ के लिये स्त्रियाँ सुख दुःख दोनों में भार सी प्रतीत होती है। इस प्रकार के राजनीति-धुरंधर नाटककार के लिखे गए राजनीति विषयक नाटक में माधुर्य या सौंदर्य का खोजना व्यर्थ है।

मुद्राराक्षस नाटक सात अङ्कों में है और नाट्यकला के मभी लक्षण इसमें पूर्ण रूप से वर्तमान है। इस नाटक में वीर रस प्रधान है। यद्यपि आश्चर्य की मात्रा भी प्रचुर रूप से वर्तमान है पर कम वीरत्व या उद्योग ही का प्राधान्य सारे नाटक में है। प्रधान नायक चन्द्रगुप्त धीरोदात्त है। पात्रों का विवेचन आगे दिया जायगा। प्रथम अङ्क में चाणक्य का मौर्य- राज्य की स्थिरता के लिए राक्षस को चन्द्रगुप्त का मन्त्री बनाने की इद इच्छा प्रकट करना बीज है । राक्षस की मोहर की प्राप्ति और शकरदास से पत्र लिखाकर मोहर करना तथा उसे मायकेतु को कपट से दिखाना विंद है। इसी विंद तथा कार्य से नाटक का नामकरण हुआ है। विराघगप्न का राक्षप से उसके प्रयत्नों का निष्फल होने का संदेइ कहना पताका है। चाणक्य और चन्द्रगुप्त के मिथ्या कलह का संवाद राक्षस के पास लाना प्रकरी है। राक्षस का मन्त्रित्व करना काय है।