पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१७२

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परिशिष्ट ख [कालिंगवा ] लही सुख सब विधि भारतवासी। विद्या कला जगत की सौग्त्री तजि आलस की फाँसी । अपनो देश धरम कुल समुझहु छोड़ि वृत्त निज दासी ॥ उद्यम करिकै होहु एक मति निज बल बुद्धि प्रकाशी। पंचपीर की भगति छाँडिकै कै हरिचन उपासी । जग के और नरन सम येऊ होउ सबै गुन रासी ॥३॥ परिशिष्ट-ख टिप्पणी प्रस्तावना नांदी-उन पाशीर्वादात्मक श्लोकों या पद्यों को नांदी मंगला- वरण कहते हैं, जिन्हें सूत्रधार नाटक के प्रारंभ करने में पहले पाठ करता है। विघ्नशांति के लिए प्रारंभ में देवताओं की स्तुति करने की प्रथा संस्कृत नाटकों में प्राचीन है। नांदी चार प्रकार की होती है- नमस्कृतिमाङ्ग लकी प्राशी पत्रावली तथा । घटना का कुछ आभास हेने के कारण इस नाटक की नांदी पत्रावली है । साहित्यदर्पण में नांदी का आठ या बारह पदों का होना लिखा है और भरत मुनि ने इस पदों को भी नांदी लिखी है । इस नाटक के मूल में आठ पद हैं यदि पदों से पंक्ति मानी जाय ) और अनुवाद में दस हैं। अनुवाद प्रारंभ में छपा था कि 'नांदी मंगलपाठ करता है। इससे ज्ञात होता है कि नांदी कोई पुरुष विशेष है जो मंगलपाठ करता है। पर स्कृत जक्षण ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है मंगल श्लोकों को ही नांदी कहते है। इस शब्द की व्युत्पत्ति से भी यही अर्थ निकलता है। इससे पूर्वोक्त वाक्य में नांदो शब्द का प्रयोग अशुद्ध है । इन विचारों से पूर्वोक्त वाक्य की क्रिया निकाल दी गई। मंगलाचरण के अनंतर