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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१७३

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मुद्राराक्षस नाट कोष्ठक में छपा भी था कि 'नांदी पाठ के अनंतर' । इसमें 'नांदी शब्द का शुद्ध अर्थ किया गया है। १. यह दोहा अनुवादक की स्वतंत्र रचना है। संस्कृत-मल किसी अंश का अनुवादक नहीं है। लगभग अपनी सभी रचनाओं में भारतेंदुजी ने यह दोहा आरंम में दिया है, जो उन्हें बहुत प्रिय था। वस्तुतः यह दोहा भावपूर्ण है । अर्थ यह हुआ कि प्रेमरूपी नए जल से भरे हुए और प्रतिदिन, सुदर रस, बहुत अधिक । अथोर बरसने वाले जिस अपूर्व बादल को देखकर मेरा ( मोररूपी ) मन नाचने लगता है उसकी जय हो। - बादल को देखकर मोर का नाचना स्वाभाविक है। इस दोहे के घन शब्द से घनश्याम अर्थात् श्रीकृष्ण का अर्थ लक्षित है। इसमें मोर रूपो मन और नेह रूपी जल का रूपक है, धन और मोर में श्लेष है, फेरफार कर कहने से पर्यायोक्ति तथा कई अर्थ लगाने से समासोक्ति है। . ३.९-इस सवैया का संस्कृत मूल इस प्रकार है- धन्या केयं स्थिता ते शिरसि ? शशिकलाः; किन्नु नामैतदस्या ? नावास्यास्तदेतत्परिचितमपि ते विस्मितं कस्य हेतोः । नारी पृच्छामि नेन्दु; कथयतु विजया न प्रमाणं यदीन्दु- देव्या निहनोतुमिच्छोरिति सुरसरित शाट यमव्याद्विभोर्वः ॥ वामाधोंग में बैठी पार्वती जी महादेवजी के मस्तक पर गंगाजी के देखकर पूछती हैं कि आपके सिर पर यह कौन धन्या है। पार्वतीजी महादेवजी के आधे अंग में स्थान पाकर अपने को सबसे अधिक भाग्यवती समझती थीं पर उन्होंने जब गंगाजी को सिर पर चढ़ी देखा तब उनको पति की प्रेयसी समझकर ईर्ष्या से यह प्रश्न किया। धन्या का अर्थ भाग्यवती है पर उससे कुछ व्यंग्य भी झलकता है कि स्त्री का पति के हृदय पर अधिकार होना ही उसका बड़भागिनी होना है न कि सिर पर चढ़ना। अनुवाद में केवल "कौन है सीस पै' है जिसमें धन्या शब्द नहीं लाया गया है । महादेव जी उत्तर देते है कि "शशिकला अर्थात् चंद्रकला है" केवल शशि या चंद्र न