पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१८४

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परिशिष्ट ख ११३ ' ६०-६३-स्वामिभक्त सेवक यदि मूर्ख और विक्रमहीन है या बुद्धिमान और विक्रमशाली सेवक स्वामिभक्त नहीं है, तो इन दोनों से स्वामी को कुछ लाभ नहीं है । इनकी सेवा केवल स्त्रीवर्ग के समान है, जिन्हें दुःख-सुख दोनों में पोषण करना पड़ता है अर्थात् वह किसी समय सहायक न होकर आश्रित मात्र रहते हैं। बुद्धिमान, विक्रम- शाली और स्वामिभक्त सेवक ही स्वामी का कुछ मंगल कर सकते हैं। यह मूल श्लोक का अर्थ है। इसमें स्त्रियों पर कटाक्ष किया गया है। कवि ने साथ ही यह दिखलाया है कि राजनीतिज्ञगण अपने षडयंत्रादि में ऐसे निमग्न रहते है कि उन्हें स्त्रीवर्ग वोम सी ज्ञात होती हैं। अन्तिम दो पंक्ति का 'येषां गुणाः भूतये समुदितः ते इतरे भृत्या संपरसुचापत्सु कलत्रमिव' अन्धय किया जा सकता है । अर्थ हुआ कि इन गुणों से युक्त वे अन्य भृत्यगण स्त्रियों के समान संपति तथा भापचि दोनों में साथ देते हैं। इससे स्त्रियों का उत्तम आदर्श प्रकट होता है । मूल और अनुवाद में कुछ विभिन्नता है। दूसरी पंक्ति 'पंडित विक्रमशील भक्ति बिनु काज नसा' होनी चाहिये । तीसरी पंक्ति का स्वारथ शब्द अधिक खटकता है, जो मन में कहीं नहीं आया है, क्योंकि प्रथम कोटि के भृत्यवर्ग असमर्थ हो सकते हैं पर स्वार्थ का दोषारोपण उन पर नहीं किया जा सकता। दूसरी कोटि के भृत्यों का वह उपयुक्त विशेषण हो सकता है। साथ ही सभी खियाँ भी स्वार्थी नहीं कही जा सकतीं। ६५-देखो अर्थात् चाणक्य दिखलाते हैं कि मैं किस प्रकार यत्न- शील हूँ और आगे उसी का विवरण देते हैं। ६७-पर्वतक के मारे जाने का कारण पूर्व कथा में दिया गया है। अनुवाद में “चद्रगुप्त का पक्ष" था पर मूल के अनुसार 'अपना पक्ष' कर दिया गया। - ६९-विषकन्या-वह सुंदर कन्या जिसे जन्म ही से थोड़ा थोड़ा . 'विष देकर उससे शरीर को ऐसा विषाक्त बना देते हैं कि उसका संसर्ग करते ही मनुष्य का प्राणनाश हो जाता है। "विषकन्याप्रयोगाद्वा 'क्षणाज्जह्यादसूनरः ॥[सुश्रुत, कल्पस्थान १०५] भाजन्म विषस'यो-