११२ मुद्राराक्षस नाम ३६-१२-चाणक्य कहते हैं कि क्षण भर में हमने नव नंदों का समूल नाश कर दिया और जिस प्रकार तालाब में कमलिनी रहती उसी प्रकार चंद्रगुप्त में राज्यश्री स्थापित कर दी। क्रोध और प्रीति के कारण एक का नाश कर और एक की उन्नति कर उसने शत्र भौ मित्र होने का परिणाम दिखला दिया । उपमा और यथासंख अलंकार है। . सूत्रधार के चंद्रग्रहण की बात को सुनकर और उसका दूसरा भय लगाकर चाणक्य नी यहाँ तक अपनी शत्र-विनाशिनी शक्ति का परिचय देते चले गए हैं और अब 'इसी सूत्र के आधार पर चंद्रगुप की श्री को स्थिरता देने के उपायों का आगे विचार करने लगे। .. ४४-मिलने ही से क्या ? अर्थात् केवल राज्य मिलने से ता तक कुछ भी लाभ नहीं है जब तक कि उसके विरुद्ध राक्षस सा प्रवास षड्यंत्रकारी प्रयत्न कर रहा हो। -सर्वार्थ सिद्धि का वृत्तांत पूर्व कथा में दिया गया हैं। ५४-५७-इस पद का मूल इस प्रकार है। ऐश्वर्यानतपेतमीश्वरमयं लोकोऽर्थतः सेवते, तं गचछन्त्यनु ये विपत्तिषु पुनस्ते तत्प्रतिष्ठाऽऽशया । भतुयें प्रलयेऽपि पूर्वसुकृतासंगेत निःसंगया, भक्च्या कार्यधुरं बहंति कृतिनस्ते दुर्लभास्त्वादृशाः ॥ - ऐश्वर्यशाली स्वामी की सभी अर्थ के निमित्त सेवा करते हैं औ विपत्ति के समय जो लोग उसका साथ देते हैं वे इस आशा पर कि फिर से उसी अवस्था पर पहुँच जाएँगे पर जो स्वामी की मृत्यु .प पूर्वोपकार के स्मरणमात्र से या निष्काम भक्ति से उनके काम को कर रहते हैं वैसे तुम्हारे सहश पुरुष दुर्लभ हैं। अनुवाद में मूल का चमत्कार नहीं आया और दूसरी पंक्ति र गठन भी ऐसा है कि अर्थ साफ नहीं मालूम होता। उसका अन्वर यों है कि "पुनि राज बिगड़े कौन स्वामी ? चित्त में [ताहि ] तनि नहीं धरै।। अर्थ हुआ कि राज बिगड़ने पर कौन किसको स्वाम समझता है १ तथा मन में भी उसका कुछ विचार नहीं करते।
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