पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१९

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शीर्ष की पूर्णिमा यी ( देखिए चतुर्थ अंक पंक्ति २८४-२८८ की टिप्पणी ) इससे दस मास पिछले गिनने से फाल्गुन की पूर्णिमा आती है, जिसके दो एक दिन इधर या उधर पर्वतक की मृत्यु हुई होगी।

नाटककार को पूर्णिमा स्यात् प्रिय दिन था क्योंकि उसने प्रस्तावना में भी चंद्रग्रहण के बहाने पूर्णिमा का उल्लेख कर ही डाला है। पंडित मोरेश्वर रामचंद्र काले ने लिखा है कि प्रथम अंक का दृश्य चैत्र की पूर्णिमा के ग्राम पास के दिन रखा गया होगा, क्योंकि कम से कम एक महीना चंद्रगुप्त के पाटलीपुत्र प्रवेश तथा प्रथम अंक की वर्णित घटना में अवश्य करतीत हुश्रा होगा और पर्वतक की जिस क्रिया को चंद्रगुप्त करना चाहता था, वह मासिक श्राद्ध रही हंगी।

दूसरे अंक में विराधगुप्त ने राक्षस से कुसुमपुर का वृत्तांत कहते हुए कहा था कि 'जर चद्रगुप्त की विजयघोषणा के विरोध से पुरवासियों के भाव का अनुमान करके आप नंदगन्य के उद्धारार्थ सुरंग से बाहर चले गए और मिस विषकन्या को आपने चंद्रगुप्त के नाश हेतु भेग था, उससे तपस्वी पर्वतेश्वर मारा गरा।' इससे यह निश्चित हो गया कि कुसुमपुर में चद्रगुप्त की विजयषणा हो जाने पर पर्वतेश्वर मारा गया। मलय केतु कुसुमपुर नगर ही से भागा था। चाणक्य ने पर्वतक के भाई वैरंधक पर विश्वास जमाकर उसी दिन की अर्द्धरात्रि को उसे नंदभवन में प्रवेश कगया था पर यह राक्षस के भेजे हुए घातकों द्वारा मारा गया ( देखिये अंक २ पं० १८४- १६२ और २५०)। इस कारण चन्द्रगुप्त को उसके पुत्र या भाई आदि के न रहने पर पर्वतक की क्रिया करानी पड़ी और उसके आभूषणों ब्रह्मणो' को बाँट देने पड़े। प्रथम अंक पं० २३.२५ के . अनुमार भी राक्षस का मलयकेतु से मिलने, म्लेच्छ गजात्रों को सहायतार्थ उभाड़ने तथा इस तैयाती: के समाचार को चाणक्य तक पहुँचने में एक मास के लगभग अवश्य: लगा होगा।

पूर्वोक्त विचारों से प्रथम अंक का घटनारंभ चैत्र के अंत या वैशाख के प्रारंभ में हुआ।

दूसरा अंक भी लगभग एक मास बाद का होगा क्योकि प्रथम अंक में। सुली दिये जानेवाले शंकरदास को छुड़ाकर सिद्धार्थक इस अंक में रादरमः