१२६ १८०-१८३-राक्षस कहते हैं कि महाराज नंद हमें इस प्रकार कह कर कि “हे राक्षम ! जहाँ हाथियों का मुड खड़ा है वहाँ जाकर उसका और उसी प्रकार घोड़ों के इस समूह का प्रबन्ध ठीक रखो तथा यह पैदल सेना भी तुम्हारे ही प्रबन्ध में है इसलिए इस सब कार्य को मन लगाकर करो" हमें एक होने पर भी अपने काम के लिए हजार के समान मानते थे। उत्प्रक्षा है। इस पद से आत्मश्लाघा की ध्वनि भी निकलती है। १८४-१६२-मूल के अनुसार इसमें कहीं कहीं पाठ भेद करना १६३-१६६-चद्रगुप्त के विनाशाय भेजी हुई विषकन्या से चाणक्य ने चालाकी से पर्वतक का नाश किया जिस प्रकार अर्जुन को मारन के लिए रखी हुई भव्यर्थ शक्ति को कृष्ण की के कौशल से कर्ण ने गटातकच पर चला कर उसे मार डाला था। मत के दो शब्दों का-एकपुरुषव्यापादिनी और तद्वध्यम्-अर्थ वहीं आया है । इनसे पद के उपमान और उपमेय की समानता और भी शिथिल होती है इससे इनका न होना ही अच्छा है। प्रथम शब्द विषकन्या और शक्त दोनों के लिए भाया है, पर दूसरे का उपयुक्त विशेषण होते हुए भी पहले पर ठीक नहीं घटता । दूसरा पर्वतक और घटोत्कच के लिए है। चाणक्य पर्वतक को आधा राज्य देने का लाभ देकर सहायतार्थ लाए थे पर उनकी कभी मर्द्ध राज्य देने की इच्छा नहीं थी और वे पर्वतक को मार डालने का .अबसर हूँढते थे। किन्तु कृष्ण जी का घटोत्कच के मारे जाने में कोई स्वार्थ नहीं था। १ कर्ण के शरीर पर अभेद्य कवच था, जिसके कारण वह किसी प्रकार नहीं मारा जा सकता था। इस कारण इन्द्र ने स्वपुत्र अर्जुन के रक्षार्थ ब्राह्म-ग रूप धारण कर दानी कर्ण से उम्र कवच की याचना की। कर्ण ने इन्द्र के कपट को समझ कर वह कवच तो उन्हें दे दिया पर एकना शक्ति माँग ली, जिसे वह यत्न से अर्जुन के वधार्थ रखता था। युद्ध में भीम के पुत्र घटोत्कच ने कर्ण को ऐसा
- माता-९