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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२१०

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१४१ हमी चंद्रगुप्त का अनिष्ट करना चाहता है। मेरे बन' की चत को वह अपनी छोटी बुद्धि से अतिक्रमण करना चाहता है। सर्प को उपमा चाणक्य के लिए बहुत हो उपयुक्त है क्यों कि सर्प दंशन से मृत्यु होती है, पर वह अपना फन किसी पर फैलाकर सेराना बना देता है। दूसरी पर्वत की उपमा अनुवाद में नाई गई है। प्रथल पंक्ति में चाणक्य और सर्प के माश्य के कारण उपमानोपमेय और चौथी पंक्ति में उपमा अलंकार है। १०६ १०९-मूल श्लोक का भावार्थ- -चंद्रगुप्त घमंडी नंद नहीं है जिसका राज-काज दुष्ट मचिवों के अपर निर्भर था और न तुम ही चाणक्य हो। हमारे और तुम्हारे कार्यों में केवल यही सादृश्य है कि दोनों ने राजाओं से वैर किया। अनुबाद का भावार्थ- .. बिना अभिमान के चतुर मंत्री द्वारा राज-काज करते हुए चंद्रगुप्त 'म्हारे राजा नंद के समान नहीं है और न तुम चाणभ्य हो, जो ठन कार्य को पूरा करो; इससे हमारे साथ विरोध करने से तुम्हाग ज्य नहीं हो सकता। 'बिना अभिमान और चतुर मंत्री प्रादि दोनों साभिप्राय विशेषणी कारण परिकरालंकार और राक्षस में न्यूनता दिखलाने से व्यति- कालंकार हुमा। १११-११५-भागुरायण अदि मेरे भृत्यों ने मलयकेतु को घेर खा है ( अर्थात् उनसे उनकी कोई कृति छिपी नहीं रह सकती। - सिद्धार्थक आदि चर भी अपना अपना कार्य पूरा करके ही विगे। देखो, अब भेद से काम लेकर ( राक्षस हो के दाँव को उलटाकर अर्थात् उसी भेद-बुद्धि का, जो वह मुझ पर चलाना चाहता "; अनुसरण कर ) चंद्रगुप्त से झूठा विरोध कर हम राक्षस ही का उबटे मलयकेतु से बिगाड़ करा दंगे। . " मूल में इतना अधिक है कि 'यद्यपि राक्षस अपने को भेर नीति में कुशल समझता है। चाणक्य के कार्यप्रणाली का निश्चय कर ने से यही नियताप्ति हुई।