१४२ मुद्राराक्षस नाक १९६-११४-नृण्मंडल की सेवा करते हुए भी प्राणों को शंख बनी रहती है, इसलिए केवल उदरपूर्ति के लिए सेवा करना कुत्तों, का काम है। काव्यलिंग अलंकार है। १२१-चाणक्य के आश्रम को देखकर व्यंग्य करता है। " १२४-१२७-चाणक्य के आश्रम का वैभव-वर्णन है। सवैया, होने के कारण मूल से अनुवाद का वर्णन विशद हो गया है। नाटककार ने चाणक्य के सादे गार्हस्थ्य जीवन का दृश्य दिखला दिया है। १२८-मल में यहाँ यह वाक्य है-'यह देव चंद्रगुप्त को वृषा कहते हैं, सो उचित ही है।' १२६-१३२-गुरुजन अर्थात् विद्या-बुद्धि में बड़े पुरुष राजा की, धन की आशा में, झूठ ही बहुत से बनावटी गुण निकाल कर यहाँ तक प्रशंसा करते हैं कि उनका मुख सूख जाता है, पर "वं रुकड़े, नहीं। कितु जिन निस्पृह व्यक्तियों को धनतृष्णा नहीं है, वे चापलूस नहीं होते और वे नियों की तृण के समान उपेक्षा करते हैं अर्थात् उनसे धनियों का यशकीतन नहीं होता। दूसरे दोहे में उपमालंकार है। १३४-१३५-जिसने सर्वलोक को पराभूत करके चंद्रगुप्त का राज्योदय तथा नंद का अस्त एक साथ किया, वह इसलिए सहस्र- रश्मि सूर्य से बढ़कर है, जो सर्वत्र संचरण न करता हुआ क्रम से शीत और उष्णता का प्रवर्तक है। - यह मूल श्लोक का अर्थ है । अनुवाद का अर्थ इस प्रकार है- लोक का मर्दन कर तथा नंद का नाश कर चंद्रगुप्त को राज्य बनाया, जिस प्रकार सबेरा होते ही सूर्योदय से चंद्रमा का तेज नष्ट हो जाता है। मूल और अनुवाद के भावों में भिन्नता है। मूल का भाव है कि चाणक्य ने अस्तोदय साथ ही किया और सारे लोक- को एक साथ पराभूत किया, जो सूर्य की शक्ति के बाहर है ( क्योंकि आधी पृथ्वी
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