पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२२

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इस प्रकार दिए है-विष्णुगुप्तस्तु कौटिल्यश्चाणक्यो द्रामिलोऽङ्गलः। वात्स्यायनो मल्जनागरक्षिलस्वामिनावपि । यह वैदिक शास्त्र का अच्छा विद्वान् तथा राजनीति-विषयक कौटिल्य-शास्त्र का रचयिता है। राजनीति में इसकी इतनी प्रसिद्धि थी कि कामंदक ने स्वरचित ग्रंथ नीतिसार के प्रारम में इसकी प्रशंसा लिख कर इसे नमस्कार किया है। इसका मत प्रत्येक काय ' को अच्छे और पूर्ण रूप से करने का था इसमें पक्षगत का नाम भी नहीं था और शत्रु के उत्तम गुणों की प्रशंसा करने में भी नहीं चूकता था ( देखिए अंक १ पंक्ति ४५-५७, अंक ७ पंक्ति ११६.६)। स्वस्थापित साम्राज्य के प्रधान अमात्य होने पर भी साधु के समान जीवन व्यतीत करना

इसके विराग का अत्युस्कृष्ट प्रमाण है ( देखिए कंचुकी का वर्णन अर

३.० १२३-३२)। इसका अपने शिष्यों पर बड़ा प्रेम रहता था। ( देखिए अं. १ पं० २० की टि०)। इसमें क्रोध, उग्रता तथा ठ की मामो पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से सब इससे डरते थे और यदि इ। पर श्रामाश्लाया का दोषारोपण किया जाय तो अनुचित है क्योंकि इने असभव काय को भी सभा का दिखलाया था। 'दैव दै। श्रालसी पुग" कहने वाले नहीं थे जैसा अंक ३५० ३९८ में चंद्रगुप्त से कहा है । अस्तु, ऐसे मात्र की बँगला के सुप्रसिद्ध नाटककार द्विजेन्द्र लाल राय के चंद्रगुप्त नाटक में बी दुर्दशा की गई है वह अनुचित है। इतिहास से राक्षस के बारे में कुछ नहीं शाम होता। ऐसा कहा जाला है कि सुबुद्धिशर्मा नामक ब्राह्मण चदनदास के पड़ोस में बसता था और उसकी सैन बुद्धि पर प्रसन्न होकर नंद ने उसे मंत्री बना दिया था। राम में त्रिनेह अधिक था और उसने मा शत्रु की योग्यता की प्रशंसा कर हृदय की माता दिखलाई है या दैव, अशकुन और शुभाशुभ का विचार रखता था। इले सेनको पर इसका रोब नहीं पड़ता था। चाणक्य मार्ग की कठिनाइयों को इवाते हुए उन्नत मस्त होकर चले चलते. थे, पर राक्षस देव को दोष देकर चिसो शान्त कर लेते थे। अं० ६५०.१०४।। · अन्य पात्र-युगल, चंद्रगुप्त और मलयकेतु, नाटक के नायक तथा प्रतिनायक चंद्रगुप्त च.मश्य में पूज्य माव रखता था और उसे उसकी संग्रता तथा नीति-कुरता पर पूर्ण विश्वास थ। मलयकेतु राक्षस पर