१५२ .-. - मुद्राराक्षस नाटक . हमारे कार्यारंभ में दैव की प्रतिकूलता और हमारे सभी प्रयोग का कौटिल्य की कुटिल बुद्धि द्वारा पूरा प्रतिरोध होने से किस प्रकार काम चलेगा इत्यादि विषयों पर विचार करते करते रात बिना निद्रा के व्यतीत हो जाती है। अनुवाद में श्लोक का भाव आ गया है पर निद्रावस्था के समय के विचारों की केवल एक श्रृंखला दी गई है। १८.२१-मल श्लोक का अर्थ इस प्रकार है- संक्षेप में कार्य प्रारंभ करके विस्तार के विधान के साथ गर्मित बीज को गहन फल के गूढ़ भेद के साथ दिखलाते हैं। कार्य सिद्धि और विघ्नों का बुद्धि से विचार कर फैले हुए कार्यों को संकुचित करने में नाटककर्ता और हमारे से पुरुष ऐसे क्लेशों को सहन करते हैं। अनुवाद में इसके सभी भाव आगए पर कमी यह है कि मत में ऐसे शब्दों का अधिक प्रयोग है, जिनके दो दो अर्थ हैं और जो दोनों पक्ष में लग जाते हैं। प्रस्तुत म'त्री तथा अप्रस्तुत नाटककार, का साधर्म्य स्थापित करने से दीपकालंकार हुधा और कुछ शब्दों में श्लेष है। इस पद में नाटककार ने नाटक लिखने की शैली दिखलाई है। नाटक में पाँच विभाग अर्थात् संधियाँ होती हैं जिन्हें-मुखप्रतिमुखे . गर्भः सविमर्शोपसंहतिः-कहते हैं। कुछ शब्द जिनके दो अर्थ हैं- (क) आरम्भ-१-शुरू करना । २-मुख-संधि, नाटकारंभ। (ख ) गर्मित-१-किसो उपाय का वह रूप धारण करना जब : फन का चिह्न दिखाई पड़ने लगे।२-गर्म संधि से तात्पर्य ऐसी रुकावट से है जो घटना के उत्पादन में भा पड़ती हैं और जिससे अंतिम फल का आभास मिलता है। (ग) सकुचावहीं-१-सब कार्यों को बटोर कर अपने इच्छित फल का प्रतिपादन करते हैं । २-निर्वहवण संधि से अर्थ है-नाटक .
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