१६२ मुंगराचस २०-लखौटा-लिखावट, पत्र । २३-२४-मूंह मुंडाकर नक्षत्र पूछना-कार्य के पहले सास पूछना चाहिए न कि उसके हो जाने पर। २५-अभी क्या बिगड़ा है अर्थात् अभी जाना शेष है। ३३-मूल में 'गुल्मस्थानाधिप से' अधिक है । पत्र और गहने की पेटी तथा भागुरायण की मुहर की बातों की सूचना देने के लिए नाटककार ने इसम प्रवेशक का समावेश किया है। 'प्रवेशकोऽनुदाचोक्त्या नीच पात्र प्रयोजितः । अंक द्वयान्तर विशेयः शेष विष्कभके तथा' लक्षण है। ४७-मूल श्लोक का भावार्थ इस प्रकार है- कभी स्पष्ट प्रकाशित हो जाती है, कभी अटिल तथा दुर्बोध हो जाती है, कभी स्थून रहती है तो कभी कार्यवश क्षीण हो जाती है, कभी तो उसके बीज तक नष्ट प्राय हो जाते हैं तो कभी बहुफल- दायनी हो जाती है, इस प्रकार यह नीति दैवर्गात के समान अत्यन्त विचित्र है। मूल भाव अनुवाद में आगया है केवल नीति को दैवगति से समानता देने से मूल में जो उपमालंकार है वह नहीं आ सका। नुवाद में चाणक्य शब्द बढ़ा देने से अप्रस्तुतप्रशंसालंकार का लोप हो गया। ५८-भागुरायण का मलयकेतु के साथ रहने से उसके प्रति कुछ स्नेहभाव अथवा कृतज्ञता का भाव हो गया है, जिस कारण उसके साथ वह कपटव्यवहार करना दुष्कर समझता है। ६०-६१-मूल का अर्थ- क्षणिक धन की लालच से वंशमर्यादा, कज्जा, यश और मन के प्रति जो विमुख होकर धनी के हाथ निज शरीर को बेचकर उसके भाज्ञा पालन करता है और जिसके विचार करने का अवसर बीर चुका है वह परतंत्र पुरुष इस समय क्या वितर्क करता है ? अनुबाद दोहे में है पर मूल का भाव स्पष्टतया व्यक्त है
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