१६३ या है। अनुवाद में प्राण शब्द बढ़ गया है, जिसे बेंचने या रेहन ने का किसी को अधिकार नहीं है। ६४-विकल्प-संदेह, भनिश्चयात्मक विचार। ६६-६६-मलं श्लोक का अर्थ- क्या राक्षस नदवंश के हद अनुराग से उत्पन्न भक्ति के कारण आवशधर और चाणक्य से निराकृत चंद्रगुप्त से मिल जायगा थवा स्वामिभक्ति पर ही हद रह कर अंत तक सच्चा रहेगा ? मेरा चि इस प्रकार चाक के समान भ्रम के चक्कर में पड़ा है। अनुवाद शिथिल है और उसमें मल का पूरा भाव नहीं था का, जिससे मूल के दो अलंकार-उत्प्रेक्षा तथा परिकर-लुप्त हो केवल विकल्प अलकार रह गया। ७२-नून के अनुसार 'सेना के जानेवाले लोगों को राह खर्च और परवाना बाँट रहे हैं। पाठ बदल दिया गया है। __ ४-इस वाक्य से मायकेतु की भागुरायण के प्रति प्रीति प्रगट ७६ कोष्ठक के भीतर का पूर्वाश तथा ७७ पं० के कोष्ठक का अंश के किसी प्रति में नहीं है, पर उपयुक्त है। - यहाँ भी मुद्रा का अर्थ खर्च रखा गया था पर मोहर, पास परवाना चाहिए । संशोधन किया गया है। ८२-कोष्ठकांतर्गत 'छल से' अनुवादक की ओर से बढ़ाया गया और ठीक है । इससे या प्रगट होता है कि भागुरायण यह जान या है कि मलयवंतु पास ही उसकी बातें सुन रहा है। मागुरायण और जीवसिद्धि दोनों ही चाणक्य के मित्र तथा षड्यंत्र में उसके इकारी है। प्रथम अंक पाक ७०-७५ में उल्लेख है कि भागुरायण ने पाक्य के भाशानुसार मलयकेतु के चित्त में यह जमाकर कि जसक्य ने ही तेरे पिता को मरवा डाला है, उसे भगा दिया और वही उसका मित्र बन कर स्वयं भी चला गया। अब मनयकेतु और राक्षस में वैमनस्य उत्पन्न करना आवश्यक है, इसलिए जीव-
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