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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२३३

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परिशिष्ट व १६५ . १२८-जिसने (पर्वतक ने ) तुम पर ( राक्षस पर) विश्वास करके अर्थात् निश्चित चित होकर अपना ऐश्वर्य, घर ( राज्य प्रबंध) सब सौंप दिया था, उसे तुमने सबों को (पर्वतक के मित्रों और पाश्रितों को ) दुःख देने के लिए मार कर अपने नाम को सार्थक किया . (अर्थात् राक्षसोचित कार्य किया )। .. अनुवाद के 'वाहि मारि दुख दै सवन' के स्थान पर मूल में हातं निपात्य सह बंधुजनाधितोय' (बन्धुजन के प्रश्र के साथ पिता को गिरा कर ) है। इससे सहोक्ति अलंकार की अनुवाद में कमी ". १३०-स्वगत द्वारा चाणक्य की भाज्ञा बतलाई गई है। . १५८-मूल के अनुसार 'तब देव पर्वतेश्वर ही चंद्रगुप्त की प्रपेक्षा अधिकतर कार्यविघातक (इस कार्य में कटक ) थे' होना पाहिए।

१४१-२-अर्थ नीतिशास्त्र के नियमानुसार प्रयोजनवश होकर

मित्र शत्रु हो जाते हैं और शत्रु मित्रता करते है ( तथा वे इस जन्म की पूर्व स्मृतियों को इस प्रकार भूल जाते है) मानों इन्होंने काया बट कर लिया है ( अर्थात् जन्मांतर पर पूर्व जन्म की बात जिस कार भूल जाती हैं)। उप्रेक्षा और अतिशयोक्ति है। • १५-६-(भत्यों के ) गुणों पर रीमने वाली तथा ( भृत्यों को) गोषों से दूर रखने वाली जो मातृ-सदृशा स्वामि-भक्ति है, उसे हम नेत्य प्रणाम करते हैं। १७०-अंक १ पं० २५४ से २४६ वक देखिए। . १७५-हमारे विपक्षी (चाणक्य ) को सत्यवादी (चंद्रगुप्त ) ने कान कर पूर्व प्रतिक्षा की सचाई दिखाई। , १७-चरों मूल में 'भस्मत्सुहृदां' है, जिसका अर्थ 'हमारे मंत्रों को हुआ। चरों के स्थान पर मित्रों शब्द होना चाहिये, इससे