१६६ मुशराचस नाटक वह ठीक कर दिया गया क्योंकि कौलूनादि नरेशों के लिए चर शब्द अनुचित था। १७८-आश्रय छूट जाने पर-मूल में इसके स्थान पर 'स्वाश्रय . विनाशेन' है अर्थात् अपने आश्रय का विनाश कर । अनुवाद से यह भाव स्पष्ट नहीं होता था कि उनका आश्रय उन्हीं से द्वारा नष्ट होने पर या दूसरों के द्वारा नष्ट होने पर छूटता है, इसलिए आवश्यक समझ कर पाठ बदला गया है। १८३-प्रशून्य “भेजा है-"रिक्तपाणिनपश्येत्तु राजानं देवता गुरुम्' के अनुसार कोरा पत्र न भेज कर साथ में कुछ वस्तु भी भेजी जाती है। . १८५-प्रर्थात् इस लेख को किसने किसे लिखा है। २१२-अंक २ पं० ३६२-३६८ देखिये। चाणक्य के सौभाग्य से राक्षस ने सिद्धार्थक को वे हो आभरण दिए जो मलयकेतु ने कुछ ही पहले अपने अंग से उतार कर भेजे थे। उसे देखते ही मलय- केतु का राक्षस पर पूरा संदेह हो गया। ____२३५.६-राजनीति-विशारद राक्षस को चंद्रगुप्त के पक्ष के बहुत से मनुष्यों का कारण मलयकेतु की सेना में मिलना सशंकित करता है पर उस शंका की विना परीक्षा किए मन का समाधान कर लेना उसके कर्मवीरत्व को नहीं प्रकट करता। ____ २३८-४३-इस छप्पय में न्याय शास्त्र के अनुमान से उपमा दो गई है इसलिये यह पद कुछ कठिन हो गया है । जहाँ हेतु या साधन अनुमेय या साध्य से निश्चय संबंध रखत है, अर्थात् अन्वय-व्याप्ति-ज्ञानविशिष्ट होता है, स्वजातीय पक्ष । ही रहता है और प्रतिकूल पक्ष में नहीं रहता, वही साधन अनुमान को सिद्ध करने वाला होता है। (राजपक्ष में इस का यह अर हुआ कि जो सेना विजयलाम में निश्चित समर्थ है, स्वामी की अनुगता तथा भक्तिसम्ममा है, अपने सहायकों से सौहार्द्र रखती है और शत्रु से कुछ भी मेल नहीं रखनी है वही अभीष्ट सिद्ध करत
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