रिशिष्ट 1) परंतु जहाँ साधन साध से भिन्न है, स्वपन ओर विपक्ष के लिए मान है और साध्य से उसकी कुछ भी तुल्यता नहीं है वहाँ ऐसे हेतु से लेकर निय प्रकार तार्किक हारते हैं उसी प्रकार राजे भी ऐमे सावन 7 ( मेना जो समर्थ नहीं है, शत्र-मित्र में एक भाव रखती है और अपक्ष में कुछ भी अनुकूल नहीं है) विश्वास कर सब प्रकार में राजित होते हैं। न्यायशास्त्र के अनुपार प्रमाण के चार भेदों में से एक अनुमान , जिसमें प्रत्यक्ष माधन के द्वारा अप्रत्यक्ष माग की भावना होनी । इसके तीन भेद हैं. जिनमें यहाँ मामान्यतोदष्ट वा अन्वय- प्रतिरकी की पपमा दी गई है। इसकी परिभाषा यों है कि नित्य ति के मामान्य व्यापार को देख कर विशेष व्यापार का अनुमान स्ना । जैसे अग्नि और धूम को बगावर साथ देखने में व्याप्ति ज्ञान पा कि जहाँ धुआँ है वहाँ अग्नि भी होगी। इसे अनुमिति भी कहते । जिसके द्वारा अनुमान मिद्ध किया जाय उसे हेतु या साधन करने जैसे धुमाँ। जो मिद्ध किया जाय वही माध्य या भनुमेय है, से अग्नि । साध्य निश्चित है, उसे स्वपक्ष कहते हैं जैसे पाकशाला। नुमिति से जहाँ साध्य सिद्ध किया जाय उसे पक्ष कहते हैं जैसे ति । जहाँ साध्य का निश्चय अभाव है, वह विपक्ष है जैसे लाशय। अन्वित-युक्त, मिला हुआ, संबंध रखता हुमा। “प्रसिद्ध-जो सिद्ध न हो, प्रमाणित न हो। इस एद में पूर्णोपमा अलंकार तथा श्लेष है। २९१-५-मून के अनुसार ऐसा होना चाहिए- (चंद्रगुप्त की ओर ले आए हुए ) इन लोगों के असंतोष का खि अमझ लिया गया है और इन लोगों ने हमारी प्रयुक्त भेद नीति भी मान लिया है, इससे संशय न करना चाहिए। २४७८मूल के अनुसार। इससे वे प्रयाण के समय विभाग रचना करके चलें। किस प्रकार
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