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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२६

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पूर्वोक्त घरनावली के देखने से ज्ञात हो जाता है कि नाट्य कला के आचार्यो ने कथावस्तु के जो विभाग किये हैं, उनका इस नाटक में कितनी उत्तमता से निर्वाह किया गया है इसका उल्लेख पहले किया जा चुका है । विद्वानों का मत है कि मृच्छकटिक को छोड़ कर इस नाटक से कोई अन्य नाटक इस गुण में आगे नहीं बढ़ सका है । सभी घटनाएं एक उसी उद्देश्य राक्षस से मिलन--की पूर्ति की ओर जा रही है । चाणक्य के उद्देश्य निश्चित करते ही उसके सभी प्रयत्न उसी की पूर्ति के लिए हुए और अपने चरों से राक्षस को उसने इस प्रकार घेर लिया कि उसके सभी प्रयास निष्फल कर उसे अंत में ऐसे अवतर पर ला उपस्थित किया कि अंत में उसे या तो घोर कृतघ्नना के या मगध साम्राज्य के मंत्रित्व के बोझ में से एक को स्वीकार करना पड़ा ।

आरंभ में दर्शकों को सभी बातों का पूरा पूरा ज्ञान कराते हुए जो उत्सुकना उत्पन्न की गई है, वह प्रायः अंत तक बढ़ती गई है और इसके दृश्य इतने सजीव और स्वाभाविक है कि कहीं जी नहीं ऊबता ।

कहा जाता है कि इस नाटक से कोई उत्तम शिक्षा नहीं मिलती और इसके दोनों प्रधान पात्र अवसर पड़ने पर मित्रों तथा शत्रुओं को मार्ग से हटाने के लिए किसी उपाय को घृणित नहीं समझते थे । अस्तु, इसमें आदर्श सामने रखकर दैव पर भरोसा करने वालों को उद्योग या कर्मवीरव की उचित शिक्षा दी गई है । कर्म का ही फल दैव या निज कर्म है । कर्म में जो कुछ लिखा जाता है वह पुस्तकाकार किसी के साथ संसार में नहीं आता पर जो कुछ कर्म किया जाता है वही पुस्तक स्वरूप में जाते समय यहीं छोड़ जाना पड़ता है । कर्मवीरत्व को यदि कुशिक्षा समझा जाय तो इस पर मेरा कुछ कथन नहीं है । प्रधान पात्रों पर जो कटाक्ष है उस पर कुछ लिखने के पहले इस गौण बात पर विचार करना उचित है । यदि कोई दस पाँच शस्त्रधारी पुरुष साथ लेकर किसी के गृह पर आक्रमण करता है तो कहा जाता है कि वह दाँका डालता है पर जब कोई लाख दो लाख सेना हेकर किसी दूसरे के राज्य पर आक्रमण करता है तो वह जगद्विजयी, दिग्विजयी या चक्रवती की उपाधियों से विभूषित किया जाता है । एक में केवल स्वार्थ है तो दूसरे में स्वार्थ के साथ यशोलिप्सा की मात्रा भी प्रचुरता से विद्यमान है । पर इस