सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १६ )


नाटक के इन दोनों पात्रों में यह दिखलाया जा चुका है कि स्वार्थ का लेश भी नहीं है ।तात्पर्य यह है कि वक्तिगत दोष तथा समाज के लिए किए गए दोष एक ही बाँट से नहीं तौले जाते।

नंद वंश की राज्यलक्ष्मी चंद्रगुप्त के वशीभूत होकर भी चांचल्य नहीं त्याग रही थी अर्थात् वह साम्राज्य के दो विभागों में-चंद्रगुस तथा पर्वतक के वीव-बाँटे जाने के विचार से अस्थिर हो रही थी। चाणक्य ने यह विचार कर कि साम्राज्य के दो भाग होने से पड़ोस में दो प्रबल साम्राज्यों का शांति पूक रहना असंभव है और आपस के झगड़े में सहस्रों सैनिकों का रक्तात होगा, इससे वह बँटवारे के विरुद्ध हो गया। इधर राक्षम ने बदला लेने के लिए चंद्रगुप्त पर विषकन्या का प्रयोग किया। चाणक्य ने अच्छा अवसर पाकर उन विषकन्या का पर्व तक पर प्रयोग करा दिया, जिससे बँटवारे का प्रश्न ही मिट गया । इसके अनंतर जब रानस पर्वतक के पुत्र मलयकेत से मिलकर राज्य में षड़यंत्र रचने लगा और उसने अनेक राजाओं को सहायतार्थ उभाडा तब चाणक्य को भविष्य में होने वाले युद्ध की आशंका हुई। चाणक्य ने राक्षस को मिलाना ही उत्तम समझा और सहस्त्रों मनुष्यों के रक्तपात से उन्होंने एक जाली पत्र बना लेना या दो चार मनुष्यों का मारा जाना अधिक उचित माना । ततीय अंक में नाटककार ने चाणक्य ही द्वारा इस विषय पर बहुत कुछ कहलाश है । मलयकेतु अंत में छोड़ दिया गया और शकटदास तथा चंदनदास की शूली दिखाट मात्र थी। बधिकों का मारा.. जाना केवल राक्षस से शस्त्र के फेंकवाने के लिये झूठ ही कहा गया था।

पूर्वोक्त विचारों से चाणक्य तथा राक्षस पर आरोपित दोषों का मार्जन हो जाता है । राजनीतिज्ञों का कार्य कितना कठिन है, यह नाटककार ने स्वय ही कहा है देखिए अंक ४५० १८-२१) । नाटक में दो एक बातें विचारणीय हैं। जिस समय चाणक्य जीवसिद्ध, शकटदास तथा चंदनदास को दड दे रहे थे उस समय तक उन्हें पद तक को अपना मित्र ही प्रकट करना ध्येय था, तब राजद्रोही के लिये श ली और राजहंता को केवल निर्वासन कैसा ! क्या इस कारण से कि वह साधु था १ अंक १५० ३५४ में चाणक्य कहते हैं कि ते वक्रनासादिक सचिव नहिं थिर सके करि, नसि चली।' उन वक्रनास आदि सचित्रों ने राक्षस के समान बटला ने