पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/३१

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पर्यायवाची शब्द हो । सिकंदर के समय के पहिने इयोनिया ग्रीस का सबसे उन्नन भाग था और उसके पूर्व की ओर स्थित था । रघुवंश में लिखा कि जब रघु दिग्विजय करते पारस पहुँचे तब उन्हें 'यवनीमुखपद्मान' का सौरभ प्राप्त हुआ था । सिकंदर के आक्रमणा के अनंतर पारस तथा मध्य एशिया में ग्रीक बसने लगे थे और वहाँ उनका अच्छा प्रभाव था विक्रम संवत् के पूर्व की दूसरी शताब्दि में मौर्य वंश का अंत कर जब पुष्यमित्र राजा हुआ तब मिनैंडर के अधीन ग्रीको ने भारत पर चढ़ाई की थी पर परास्त होकर उन्हें लौट जाना पड़ा था । इसी पुष्यमित्र ने जन अश्वमेध यज्ञ किया और दिग्विजय के लिये सेना भेजी तब सिंध [बुदेलखंड की नदी] नदी के तट पर उसने यवनों को परास्त किया था । मिनैंडर की चढ़ाई के अनंतर फिर कोई यरोपियन श्राक्रमण स्थल मार्ग से नहीं हुआ । यदि यवन शब्द यरोपियन जातियों के लिये प्रयोग किया जाता था, तो वह उन्हीं के लिये हो सकता है जो सिकंदर से मिनैंडर के समय तक भारत में आकर बस गए थे । जब ये यवन हिन्दुओं में मिल गए तब यह शब्द सभी परदेशी जाति के अर्थ में लिया जाने लगा । पर मुद्राराक्षस का यवन शब्द उसी अवस्था का द्योतक है, जब वे हिंदुओं में मिल चले थे । क्योंकि उसके अनंतर यवन शब्द एक जाति विशेष का सूचक न होकर म्लेच्छ शब्द के समान हिंदू धर्म से भिन्न सभी अन्य मतावल बियों के लिये प्रयुक्त होने लगा ।

वाल्होक--व्यास और सतलज के बीच का प्रांत, जो केकय देश के उत्तर में है [ रामायण, अयोध्या स० ७८] । त्रिकांड शेष में वाल्हीक और त्रिगर्त एक ही देश का नाम बतलाया गया है । महाभारत [ कर्ण पर्व स०४४ ] में लिखा है कि वाल्हीक जाति गवी और अपगा के पश्चिम में बसती थी, जो झा प्रांत कहलाता है । मद्र, जिनकी राजधानी शाकल [ग्रोकों का संगाला ] थी, वाहिक कहलाते थे, जो वाल्हीक का अपभ्रंश रूप है । दिल्ली के लोहस्तंभ पर मिंधु के वाल्होकों का उल्लेख है । बलख को भी वल्हीक कहते हैं, जो तुर्किस्तान में है और जिसे ग्रीक बैक्ट्रियाना करते थे । जेंद भाषा में वाल्लीक को वाक्तर कहते थे, जिससे ग्रीको ने बैक्ट्रिआना या बैक्ट्रिया शब्द गढ़ लिया है ।