पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/४१

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चंद्रशताब्दि का पूर्वाद्ध है। इधर हाल में विशाखदत्त कृत एक नाटक देवी चंद्रगुप्तम् का पता चला है, जिसके उद्धरण उक्त नाटककार है। नाम सहित रामचंद्र गुणचंद्र कृत नाटयदर्पण तथा भोज कृत शृगार प्रकाश में दिए गए हैं। - ७-भरतवाक्य यहाँ पूर्ण उद्धत कर देना आवश्यक जान पड़ता है। क्योंकि इसे लेकर मि० तैलौंग के सिवा अन्य विद्वानो ने भी कुछ तक दिया है। वाराहीमात्मयोनेस्तनुभवनविधागस्थतस्यानुरूt, यस्य प्रागदंत कटिं प्रलयरिंगता शिश्रिये भूनधात्री । म्लेच्छरु द्वध्यमाना भुजयुगमधुना संश्रिताराजमूतः, - म श्रीमद्न्धुमृत्यश्चिरमवतु महीं पाथिवश्चन्द्रगुमः ।। मिस्टर काशी प्रसाद जायसवाल ने 'म्लेच्छरुद्विध्यमाना, धुना औ चंद्रगुप्तः' शब्दों पर विचार करते हुए निश्चित किया था कि नाटककार ने अपने समय के राजा गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय का उल्लेख किया है, जो हुणों को परास्त करेंगे। इस प्रकार नाटक का निर्माण काल उन्होंने चंद्र. - गुप्त द्वितीय का समय अर्थात् पाँचवीं शताब्दि निश्चित किया है। *मिस्टर वी० जे० अंतानी ने इन विचारों का खंडन किया है। उनका कथन है कि मच्छरु द्वममाना के .म्लेच्छ शब्द से हूण तात्पर्य क्यों लिया गया है और ऐसा अर्थ लेने को उद्वज्यमाना का भविष्य में अर्थ क्यों लगाया . गया है ? वस्तुत: म्लेच्छ शब्द हूण, यवन, शक श्रादि किसी भी जाति का का समय सांतवीं शताब्दि के लगभग माना है। यदि विशाखदत्त ने यह श्लोक भत हर से उद्वत किया है तो उन्होंने सातवीं शताब्दि के पनतर मुद्राराक्षस की रचना को है और यदि मुद्राराक्षा से शतक में लिया गया है तो वे उसके पहले रहे होंगे। ईन्डियन ऐन्टिक्केरी जि० ४२ पृ. २६५-५७ । इन्डिन रेन्टिकेरी जि.० ५१ सा. १९२२ पृ० ४६-५१ ।