पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अधिक संभव हैं । गंगा-सोन-संगम भी एक भौगोलिक वैचिक्ष्य है। उसकी यात्रा के विषय में 'प्राोिलोजिस्टस्' ने कोई स्वतंत्र तक शैली पर विचार नहीं किया है प्रत्युत्- वे प्रोफेसर विलसन के सिद्धांत ही को अकाटय मान कर चले हैं। यह गगा-सोन-संगम चंद्रगुप्त मौर्य के समय पटना के पूर्व था पर फाहियान के समय तक लगभग एक सहस्त्र वर्ष में पश्चिम को यात्रा करता हुश्रा पटना से एक योजन पश्चिम पहुँच गया। इसके अनंतर लगभग चौदह शताब्दि में इसने सत्रह अठारह कोस की और यात्रा की है । जव सुगांगप्रासाद से चंद्रगुप्त ने गंगा जी का वर्णन किया तब यदि सोन भी वहाँ से दीखती तो नाटककार उसके विषय में भी कुछ कहलाता । साथ ही मलयतु द्वारा सोन नद पार करना कहलाकर उसका पटना के पास होना भी प्रकट किया है क्योंकि इस प्रकार तो सेना को अनेक नदी उतरनी पड़ी होगी पर उन सब का उल्लेख करना नाटककार का ध्येय न था । जिस नगर पर अधिकार करना हो उसे परिखा के समान घेरने वानी नदी विशेष उल्लेखनीय है और मलयकेतु भी लोन के दक्षिण चन कर उसे पार करना चाहता था। इस्से यह ज्ञात होता है कि सोन पटना के द्भुत दूर उस समय तक नहीं हट चुकी थी। नाटक ल्लिखित स्थानों तथा जातियों की विवेचना से ज्ञात होता है कि इन सब का उल्लेख मौय्य-कालीन होने के नाते नहीं है प्रत्युत् नाटककार कालीन होने से है । काश्मीर-नरेश पुष्कराक्ष का समय चौथी-पाँचवीं शताब्दि है । कांबोज, खस, मत्नय श्रादि जातियों का उल्लेख भी जिस प्रकार 'हुश्रा है, उससे उन्हीं शताब्दियों का द्योतन होता है। शक गत विक्रन शाका के कुछ ही पहिले भारत में आई और चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय सन् ३६४ ई० के लगभग उसका उत्तर भारत से लोप हो गया। ऐसी में उक्त जाति का उल्लेख नाश के आस पास ही होना चाहिए, बाद का नहीं। हूणों का उल्लेख भी उनके प्रल होने के पहिले अर्थात् गुप्तकाल के प्रथम तीन सम्राटों के समय का है, स्कंदगुप्न समय का नहीं है अतः इन सब से नाटक का निर्माण काल चौथी ही ज्ञात होता है :