( ५४ ) हुआ । राक्षस की सेना और नागरिक लोग लडते लड़ते शिथिल हो गए; इसी समय में गुप्तरीति से जीवसिद्धि के बहकाने से राजा सर्वार्थसिद्धि वैरागी . होकर वन में चला गया। इस कुसमय में राजा के चले जाने से राक्षस और भी उदास हुआ। चंदनदास नामक एक बड़े धनी जौहरी के घर में अपने कुटुम्ब को छोड़कर और शकटदास कायस्थ तथा अनेक गजनीति .. जाननेवाले विश्वासपात्र मित्रों को और कई श्रावश्यक काम सौंपकर राजा सर्वार्थसिद्धि के फेर लाने को श्राप तपोवन की ओर गया। ... चाणक्य ने जीवसिद द्वारा यह सब सुनकर राक्षस के पहुँचने के पहले ही अग्ने मनुष्यों से राजा सर्वार्थसिद्धि को मरवा डाला । राक्षस जब तपोवन : में पहुंचा और सर्वार्थसिद्धि को मरा देखा तो अत्यंत उदास होकर वहीं रहने लगा। यद्यपि सर्वार्थसिदि के मार डालने से चाणक्य की नंदकुल के नाश . को प्रतिज्ञा पूरी हो चुकी थी; किंतु उसने सोचा कि जब तक राक्षस चंद्रगुप्त का मंत्री न होगा तब तक राज्य स्थिर न होगा। वरंच बड़े विनय से तपोवन में राक्षस के पास मंत्रित्व स्वीकार करने का संदेशा भेजा, परंतु प्रभुभक्त राव ने उसको स्वीकार नहीं किया। तपोवन में कई दिन रहकर राक्षस ने यह सोचा कि जब तक पर्वतक को हम न फोड़ेंगे, काम न चलेगा यह सोच कर वह पर्वतक के राज्य में गया और वहाँ इसके बूढ़े मंत्री से कहा कि चाणक्य बड़ा दगाबाज है, वह श्राधा राज कभी न देगा, आप राजा को लिखिए, वह मुझमे मिलें तो मैं सब राज्य उनको दूं। मंत्रा ने पत्रद्वारा पर्वतक को यह सब बृत्त और राक्षस की नीतिकशलता लिख भेजा और यह भी लिखा कि मैं अत्यत बृद्ध हूँ, आगे से मंत्री का काम सक्षस को दीजिये। पालिपुत्र विजय होने पर भी चाणक्य आधा राज्य देने में बिलंब करता है, यह देखकर सहज लोभी पर्वतक ने मंत्री की बात मान ली और पत्रद्वारा राक्षस को गुप्त रीति से अपना मुख्य अमात्य बनाकर इधर ऊपर के चित्त से चाणक्य से मिला रहा । जीवसिदि के द्वार्य चाणक्य ने राक्षस का सब हाल जान कर अत्यंत सावधानतापूर्वक चलना प्रारंभ किया। अनेक भाषा जाननेवाले बहुत से
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