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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/७४

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प्रथम अंक की बड़ी प्रतिज्ञारूपी नदी से पार उतर चुका तप यह बात प्रकाशित होने ही से क्या मैं इसको न पूरी कर सकूँगा ? क्योंकि- दिसि-सरिस रिपु-रमनी बदन-पसि सोक-कारिख लायकै । लै नीति पवनहि सचिव टिपन छार डारि, जरायकै ॥ बितु पुरनिवासी पच्छिगन नर बंसमूल नसायकै । भो शांत मम क्रोधाग्नि यह क्छु आन हित नहिं पायकै ॥ . और भी जिन अनन ने अति सोच सों नृप भय प्रगट धिक नहिं कह्यौ । पै मम अनादर को अतिहि वह सोच जिय बिनके रह्यो। ते लखहिं आसन सों गिरायो नंद सहित समाज को। जिमि सिखर तें बनराज क्रोधि मिशबई गजराज को । सो यद्यपि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूँ, तो भी चंद्रगुप्त के हेतु शस्त्र अब भी धारण करता हूँ। देखो, मैंने- नवनंदन को मूल सहित खोद्यो छन भर में। चंद्रगुप्त में श्री राखी नलिनी जिमि सर में । क्रोध प्रीति सों एक नासिकै एक बसायो । सत्रु मित्र को प्रगट सबन फल लै दिखलायो। अथवा जब तक राक्षस नही पकड़ा जाता तब तक नंदों के मारने से क्या और चंद्रगुप्त को राज्य मिलने ही से क्या ? (कुछ सोचकर ) अहा ! राक्षस की नंदवंश में कैसी दृढ़ भक्ति है। जब तक नंदवंश का कोई भी जीता रहेगा, तब तक वह कभी शूद्र का मंत्री बनना स्वीकार न करेगा, इससे उसके पकड़ने में हम लोगों को निरुद्यम रहना अच्छा नहीं। यही समझकर वो नंदवंश का सर्वार्थसिद्धि बिचारा तपोवन में चला गया, तो भी हमने मार डाला । देखो, राक्षस मलयकेतु को मिलाकर हमारे बिगाड़ने में ५० यत्न करता ही जाता है । ( आकाश में देखकर ) वाह ! राक्षस • मंत्री वाह । क्यों न हो। वाह ! मंत्रियों में वृहस्पति के समान वाह ! तू धन्य है, क्योंकि- ४०