पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुद्राराक्षस नाटक जब लौं रहै सुख राज को तब लौं सबै सेवा करें। पुनि राज बिगड़े कौन स्वामी ? तनिक नहिं चित में धरै॥ जे विपतिहू में पालि पूरब प्रीति काज सँवारहीं। ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं संसय नहीं ॥ इसी से तो हम लोग इतना यत्न करके तुम्हें मिलाया चाहते हैं कि तुम अनुग्रह करके चद्रगुप्त के मंत्री बनों, क्योंकि- मूरख, कातर, स्वामिभक्त कछु काम न आवै । पंडित हू बिनु भक्ति काज कछु नाहिं बनावै ॥ निज स्वारथ की प्रीति करें ते सब जिमि नारी । बुद्धि, भक्ति दोउ होय तबै सेवक सुखकारी ॥ सो मैं भी इस विषय में कुछसोता नहीं हूँ; यथाशक्ति उसी के मिनाने का प्रयत्न करता रहता हूँ । देखो , पर्वत को चाणक्य ने मारा यह अपवाद न होगा, क्योंकि सब जानते हैं कि चंद्रगुप्त और पर्वतक मेरे मित्र हैं, तो मैं पर्वतक को मारकर अपना पक्ष निर्बल कर दूंगा ऐसी शंका कोई न करेगा। सब यही कहेंगे कि सबस ने विष कन्धा-प्रयोग करके चाणक्य के मित्र पर्वतक को मार डाला। पर एकांत में मैंने भी भागुगयण द्वारा मलयकेतु के जी ७० में निश्चय दिया है कि तेरे पिता को चाणक्य ही ने मारा, इससे मलयकेतु मुझसे बिगड़ रहा है। जो हो, यदि यह राक्षस लड़ाई करने को उद्यत होगा तो भी पकड़ा जायगा। पर जो हम मलयकेतु को पकड़ेंगे तो लोग निश्चय कर लेंगे कि अवश्य चाणक्य ही ने अपने मित्र इनके पिता को मारा और अब मित्रपुत्र अर्थात् मलयकेतु को मारना चाहता है । और भी, अनेक देश की भाषा, पहिरावा , चाल , व्यवहार जानने वाले अनेक वेषधारी बहुत से दूत मैंने इसी हेतु चारों ओर भेज रक्खे हैं कि वे भेद लेते रहें कि कौन हम लोगों से शत्रुता रखता है, कौन मित्र है। और कुसुमपुर निवासी नंद के मंत्री और 10 संबंधियों के ठीक ठीक वृत्तांन का अन्वेषण हो रहा है, वैसे ही भद्गभटादिकों को बड़े बड़े पद देकर चंद्रगुप्त के पास रख दिया है