पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/९१

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M मुद्राराक्षस नाटक नंद में अनुरक्त हैं और हमारे सब उद्योगों में सहायक होते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि राक्षस कसुमपुर के आक्रमण के बारे में उदासीन नहीं है। वहाँ विषादिक से चंद्रगुप्त के नाश करने को और सब प्रकार के शत्रु का दाँव घात व्यथं करने को बहुत साधन देकर शकटदास को छोड़ ही दिया है । प्रति क्षण शत्रुओं का भेद लेने को और उनका उद्योग नाश करने को जीवसिद्धि इत्यादि सुहृद ७० नियुक्त ही हैं। सो अब तो- विषवृक्ष, अहिसुत, सिंहपोत समान जा दुखरास को । नृपनंद पिज सुत जानि पाल्यो सकुल निज असु नास को ॥ ता चंद्रगुप्तहिं बुद्धिसर मम तुरत मारि गिराय है। जो दुष्ट दैव न कवच बनिकै असह आड़े अ य है। (कंचुकी श्राता है) कंचुकी-(श्राप ही श्राप )। नपनंद काम-समान चानक-नीति-जा जरजर भयो। पुनि धर्म-सम नृपचंद, तिन तन पुरहु क्रम सो बढ़ि लयो॥ अवकास लहि तेहि लोभ-राक्षस जदपि जीतन जायहै ! ८० पैसिथिल बल मे नाहिं कोऊ विधिहु सों जय पायहै ॥ (देखकर ) यह मंत्री राक्षस है । ( आगे बढ़कर ) मंत्री! आपका कल्याण हो। राक्षस - जाजल क ! प्रणाम करता हूँ। अरे प्रियंवदक ! भासन लो। पियंवदकः-(प्रासन लाकर ) यह आसन है श्राप बैठे। कंचुकी-( बैठकर ) मंत्री ! कुमार मलयकेतु ने श्रापको यह कहा है कि 'भारने बहुत दिनों से अपने शरीर का सब शृङ्गार छोड़ दिया है, इससे मुझे बड़ा दुःख होता है। यद्यपि आपको अपने स्वामी के गुण साहस नहीं भूलते और उनके वियोग के दुःख में ६० यह सब कुछ नहीं अच्छा लगता तथापि मेरे कहने से आप इनको पहिरें।" (भाभरण दिखाता है ) मत्री ! ये आभरण कुमार ने अपने अंग से उतारकर भेजे हैं। आप इन्हें धारण करें।