पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/९०

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द्वितीय अंक तो चलू अब मंत्री राक्षस से मिलू। ( जवनिका उठती है और आसन पर बैठा राक्षस और पास प्रियंवदक नामक सेवक दिखाई देते हैं।) राक्षस--(ऊपर देखकर आँखों में प्रासू भर कर ) हा ! बड़े कष्ट की बात है- or गुन, नीति, बल सो जाति अरि जीमि आपु जादवगन हयो। तिमि नंद को यह बिपुल कुल विधि बाम सों सब नसि गयो । यहि सोच मैं मोहि दिवस अरु निसि नित्य जागत बीतहीं। यह लखौ चित्र विचित्र मेरे भाग के बिनु भीतहीं॥ अथवा बिनु भक्ति भूले, बिनहि स्वारथ हेतु हम यह पन लियो। बिनु प्रान के भय, बिनु प्रतिष्ठा लाभ अब अबलौं कियो। सब छाविकै परदासता यहि हेतु नित प्रति हम करें। जो स्वर्ग में हूँ स्वामि मम निज सत्रु हत लखि सुख भरें । (अकाश की भोर देखकर दुःख से ) हा! भगवती लक्ष्मी ! ५० तू बड़ी अगुणज्ञा है। क्योंकि-. निज तुच्छ सुख के. हेतु तजि गुनरासि नंद नृपाल को। अब सूद में अनुरक्त है लपटी सुधा मनु व्याल को ॥ ज्यों मत्त गज के मरत मद की धार ता साथहि नसै॥ त्यों नंद के साथहि नसी किन ? निलज १ अजहूँ जग बसे । अरे पापिन ! ____का जग में 'कुलबंत नृप जीवत रत्यौ न कोय ! जो त लपटी सूद्र बों नीच गामिनी होय ॥ अथवा बारवधू जन. को अहै सहजहि चपल सुभाव । तजि कुलीन गुनियन करहिं भोछे जन सों चाव ॥ ६. तो हम भी अब तेरा आधार हो नाश किए देते हैं । ( कुछ सोचकर ) हम मित्रवर चंदनदास के घर अपदा कुटुब छोड़कर बाहर चले आए सो अच्छा ही किया। वहाँ के निवासी महाराज