पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१३८

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, . पञ्चम अङ्क १२३ राक्षस-जो आर्य हो उससे पूछो, हम अब पापकारी अनार्य हो गए हैं। मलयकेतु-स्वामि पुत्र तुव मौर्य हम, मित्र पुत्र सह हेत । पै हो उत वाको दियो, इत तुम हम को देत ॥ सचिवहु भे उत, दास ही, इत तुम स्वामी आप। कौन अधिक फिर लोभ जो, तुम कीनों यह पाप ।। राक्षस-(आँखों में आँसू भर के ) कुमार। इसका निर्णय तो आप ही ने कर दिया- स्वामि पुत्र मम मौर्य तुम, भित्र पुत्र सह हेत । पैहैं उत वाको दियो, इत हम तुम को देत ।। सचिवहु मे उत दास ही, इत हम स्वामी आप । कौन अधिक फिर लोभ जो, हम कीनो यह पाप ।। मलयकेतु-(चिट्ठी इत्यादि दिखला कर ) यह सब क्या है ? राक्षस-(आँखों में आँसू भर कर के) यह सब चाणक्य ने नहीं किया दैव ने किया। निज प्रभु सों करि नेह जे भृत्य सर्मपत देह । तिन सों अपने सुत सरिस सदा निबाहत नेह ।। ते गुण गाहक नृप सबै जिन मारे छन माहि। ताही विधि को दोस यह औरन को कछु नाहिं ।। मलयकेतु-(क्रोध पूर्वक ) अनार्य ! अब तक छल किए जाते हो कि यह सब देव ने किया। विष कन्या दै पितु हन्यौ, प्रथम प्रीति उपजाय । अब रिपु सों मिलि हम सबन, बधन चहत ललचाय ।। राक्षस -( दुःख से आप ही आप ) हाँ! यह और जले पर नमक