पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१५२

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छठा अन १३७ वत्सलता से नहीं देते इसी में इतना विलम्ब हुआ। राक्षस-सहर्प (आप ही ग्राप) वाह मित्र चन्दनदास ? वाह ? धन्य ! धन्य! मित्र परोच्छहु में कियो, सरनागत प्रतिपाल । निरमल जस सिविॐ सो लियो, तुम या काल कराल ।। (प्रकाश) भद्र! तुम शीघ्र जाकर जिष्णुदास को जलने से रोको ; हम जाकर अभी चन्दनदास को छुड़ाते हैं। पुरुष-आर्य ! आप किस उपाय से चन्दनदास को छुड़ाइएगा? राक्षस-(आतङ्क से खङ्ग मियान से खींच कर ) इस दुःख में एकान्त मित्र निष्कृस कृपाण से।

  • शिवि ने शरणागत कपोत के हेतु अपना शरीर दे दिया था।

राजा शिवि जब ६२ यज्ञ कर चुके और आगे फिर प्रारम्भ किया तब इन्द्र को भय हुआ कि अब मेरा पद लेने में पाठ यज बाकी हैं उसने अग्नि को कपोत बनाया और आप बाज बन उसके मारने को चला, तब वह भागा हुआ राजा की शरण में गया । राजा ने उसका बचन सुन बाज को देख यज्ञशाला में अपनी गोदी में छिपा लिया और बाज को निवारण किया, बाज बोला कि महाराज ! आप यहाँ यह क्या अनर्थ करते हैं कि मेरा आहार छीन लिया ? मै भूख से शरीर को छोड आपको पाप भागी करूँगा । तब राजा ने कहा कि उसे तो नहीं देंगे, इसके पलटे में जो मागेगा सो देगे, पश्चात् इसके प्रति उत्तर मे यह बात ठहरी कि राजा कबूतर के तुल्य तौल के शरीर का मास दे तब हम कबूतर को छोड़ देवें । इस बात पर राजा ने प्रसन्न हो सुला पर एक और कपोत को बैठाया दूसरी और अपने शरीर का मास काट कर चढाने लगे, परन्तु सब शरीर का मास काट-काट के चढाय दिया तो भी कबूतर के समान नहीं हुआ । तब राजा ने गले पर खडग चलाया त्यों ही विष्णु ने हाथ पकड़ अपने लोक को भेज दिया । .