पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/९३

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मुपद्रा-राक्षस

चन्द्रगुप्त---आर्य! जब इन सबके भागने का उद्यम जानते ही थे तो क्यों न रोक रक्खा?

चाणक्य---ऐसा कर नहीं सके।

चन्द्रगुप्त---क्या आप इसमें असमर्थ हो गये वा कुछ उसमें भी प्रयोजन था?

चाणक्य---असमर्थ कैसे हो सकते हैं? उसमें भी कुछ प्रयोजन ही था।

चन्द्रगुप्त---आर्य! वह प्रयोजन मैं सुना चाहता हूँ।

चाणक्य---सुनो और भूल मत जाओ।

चन्द्रगुप्त---आर्य! मैं सुनता ही हूँ, भूलूँगा भी नहीं, कहिये।

चाणक्य---अब जो लोग उदास हो गए हैं या बिगड़ गए हैं उन के दो ही उपाय हैं, या तो फिर से उन पर अनुग्रह करें या उनको दण्ड दें और भद्रभट, पुरुषदत्त से जो अधिकार ले लिया गया है तो अब उन पर अनुग्रह यही है कि फिर उनको उनका अधिकार दिया जाय और यह हो नहीं सकता, क्योंकि उन को मृगया, मद्यपानादिक का जो व्यसन है इससे इसे योग्य नहीं हैं कि हाथी घोड़ों को सम्हालें और सब सेना की जड़ हाथी घोड़े ही हैं वैसे ही हिंगुरात, बलगुप्त को कौन प्रसन्न कर सकता है क्योकि उनको सब राज्य पाने से भी सन्तोष न होगा, और राज-सेन भागुरायण तो धन और प्राण के डर से भागे हैं ये तो प्रसन्न होही नहीं सकते, और रोहिताक्ष विजयवर्मा का तो कुछ पूछना ही नहीं है, क्योंकि वे तो और नातेदारों के मान से जलते हैं और उनका