पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/९६

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तृतीय अङ्क

हम खोवें इक महत नर जो वह पावे नाश।
जो वह नासै सैन तुव तौहू जिय अति त्रास॥
तासों छलबल करि बहुत आपन बल करि वाहि।
जिमि गज पकरें सुघर तिमि बांधेंगे हम ताहि॥

चन्द्रगुप्त---मैं आपकी बात तो नहीं काट सकता, पर इससे तो मन्त्री राक्षस ही बढ़ चढ़ के जान पड़ता है।

चाणक्य---(क्रोध से) 'आप नहीं' इतना क्यों छोड़ दिया? ऐसा कभी नहीं है। उसने क्या किया है कहो तो?

चन्द्रगुप्त---जो आप न जानते हों तो सुनिये कि वह महात्मा---

जदपि आपु जीती पुरी तदपि धारि कुसलात।
जब लौं जित चाह्यौ रह्यौ धारि सीस पै लात॥
डौंड़ी फेरन के समय निज बल जय प्रगटाय।
मेरे दल के लोग को दीनों तुरत हराय॥
मोहे परिजन रीत सों जाके सब बिनु त्रास।
जो मोपै निज लोकहू आनहिं नहिं विश्वास॥

चाणक्य---(हॅस कर) वृषल! राक्षस ने यह सब किया?

चन्द्रगुप्त---हॉ हॉ! अमात्य राक्षस ने यह सब किया।

चाणक्य---तो हमने जाना जिस तरह नन्द का नाश करके तुम राजा हुए वैसे ही अब मलयकेतु राजा होगा।

चन्द्रगुप्त---आर्य! यह उपालम्भ आपको नहीं शोभा देता करने वाला सय दैव है।

चाणक्य---रे कृतघ्न!

अतिहि क्रोध करि खोलि कै, सिखा प्रतिज्ञा कीन।
सो सब देखत भुव करी, नव नृप नन्द विहीन॥