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मुद्रा-राक्षस

घिरी स्वान अरु गीध सौं भय उपजावनिहारि।
जारि नन्दहू नहिं भई, सान्त मसान दवारि॥

चन्द्रगुप्त---यह सब किसी दूसरे ने किया।

चाणक्य---किस ने?

चन्द्रगुप्त---नन्दकुल के द्वेषी दैव ने।

चाणक्य---दैव तो मूर्ख लोग मानते हैं।

चन्द्रगुप्त---और विद्वान लोग भी यद्वा तद्वा करते हैं।

चाणक्य---(क्रोध नाट्य करके) अरे वृषल! क्या नौकरो की तरह मुझे पर आज्ञा चलाता है?

खुली सिखाहू बाँधिवे चञ्चल भे पुनि हाथ।
(क्रोध से पैर पृथ्वी पर पटक कर)
घोर प्रतिज्ञा पुनि चरन करन चहत कर साथ॥
नन्द नसे सो निरुज ह्वै तू फूल्यो गरवाय।
सो अभिमान मिटाइहौ तुरतहि तोहि गिराय॥

चन्द्रगुप्त---(घबडा कर) अरे! क्या आर्य को सचमुच क्रोध आ गया!

फर फर फरकत अधरपुट भए नयन जुग लाल।
चढ़ीजाति भौहैं कुटिल स्वाँस तजत जिमि ब्याल॥
मनहुँ अचानक रुद्रदृग खुल्यौ त्रितिय दिखरात।
(आवेग सहित)
धरनी धारयौ बिनु धँसे हा हा किमि पदघात॥

चाणक्य---(नकली क्रोध रोक कर) तो वृषल! इस कोरी बक- वाद से क्या लाभ है? जो राक्षस चतुर है तो यह शस्त्र उसी को दे। (शस्त्र फेक कर और उठ कर) आप