व्याकुलता से भी बहुत अधिक बढ़ी चढ़ी है और वह बड़े ही कष्ट
से अपने दिन काट रहा है। जब वह तेरे पास था तब सखियों के सामनं कही जाने योग्य बात भी, वह तर कान में इसलिए कहने दौड़ता था कि इसी बहाने तेरे मुख-स्पर्श का सुख उसे मिले। मो वही आज दैवयोग से तुझसे इतनी दूर जा पड़ा है कि न तो वहाँ से यहाँ तक दृष्टि ही की गति है और न श्रुति ही की-न तो वह तुझे देखही सकता है और न तुझसे दो बाते ही कर मकता है ! इसी से वह और भी खिन्न रहता है और इसीसे तुझसे मिलने की उत्कण्ठा उसके हृदय में और भी बढ़ रही है। तुझम अपनी करुण-कथा कहने का और कोई द्वार न देख उसनं बड़े चाव से कुछ पञ्च बना कर मुझे याद करा दिये हैं । उन्हीं को मैं तुझे सुनाता हूँ। नू सावधान होकर उन्हें मेरे मुख स सुन"-
"प्रिय ! मैं दिन रात तेरे रूप का चिन्तन किया करता हूँ और दर्शनों से अपने नेत्र कृतार्थ करने के लिए तेगे समता ढूँढ़ने मे लगा रहता हूँ । तेरे अङ्ग की समता मुझं प्रियङ्गु-लताओं मे मिल जाती है, तेरी चितवन की समता चकित हरणियों की चितवन में मिल जाती है, तर कपालों की समता चन्द्रमा में मिल जाती है; तेरे केशों की समता मार-पंखों में मिल जाती है. और तेरी भौंहों की मरोड़ की समता नदी की पतली पतली चञ्चल तरङ्गों में मिल जाती है । परन्तु, हाय हाय ! तेरे सर्वाङ्ग की समता किसी एक वस्तु में कहीं भी एकत्र देखने को नहीं मिलती।
'मैं कभी कभी मनही मन यह अनुमान करता हूँ कि तू मुझसे
रूठ कर मानिना अन बैठा है इमस तुझ मनान क लिए मैं पत्थर