पृष्ठ:मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६
मेघदूत ।


कभी कभी उनर में दक्षिण को वायु चलने लगती है। वह वायु बर्फ से ढकं हुए हिमालय के शिविरों के ऊपर से आती है। अतएव बहुत ठंडी होती है । हिमालय पर देवदारू के वृक्ष बहुत हैं। उनकी कॉपों को तोड़ती हुई जब यह वायु वहतो है तब उनके दृध के स्पर्श से मुगन्धित भी हो जाती है. क्योंकि देवदारु के दृध में बड़ी सुन्दर मुगन्धि होती है : हे गुणवत्ती ! इस लुगन्धि-मनी और शीतल वायु को मैं बड़े ही प्रेम से अङ्क लगाता हूँ। बात यह है कि मेरे मन में आता है कि कहीं यह तेरे अङ्गों को छूकर न आई हो । मरी उत्कण्ठा का यह हाल है कि तेरी स्पर्श की हुई वस्तुओं के समानम को भी मैं बहुत कुछ समझता हूँ।

'तुझसे वियुक्त होने के कारण मैं बड़ी ही भीषण व्यथाय मह रहा हूँ। वे इतनी सन्ताप-कारिणी हैं कि उनके कारण मेरा शरीर दहकता सा रहता है। हाय ! मैं अपनी रक्षा के लिए किसकी शरण जाऊँ ? हे मृगनयनी ! मेरी दशा तो विक्षिप्त के सदृश है । मेरे मन का यह हाल है कि व्याकुलता के कारण वह असम्भव को भी सम्भव ममझता है । वह अत्यन्त दुर्लभ क्या, अलभ्य, पदार्थों की प्राप्ति की भी इच्छा करता है। वह यह सोचता रहता है कि इतनी लम्बी लम्बी रातें किस तरह एक क्षण के समान कट जायँ और दिन प्रातःकाल से मायकाल तक, किस तरह बहुत ही कम कष्टदायक हो। भला ये बातें क्या कभी सम्भव हैं ? मुझ वियागी को न दिन को चैन, न रात को चैन । आठ पहर चौसठ घड़ी तड़पते ही वीतता है।

'मैं मनही मन तरह तरह की कामनायें किया करता हूँ। तुझम मिलन पर मैं यह करूँगा मैं वह करूंगा-यह दिन रात