मैं अपने मन में गुना करता है ! इसी नरक बड़े चाय में मैं शाप के दिन गिन रहा हूँ और अपने ग्रामों को रच रहा हूँ तू भीमा ही कर । न भी धीरज धर. और जैसे ही के विचंग के दिन काट दे। हे कल्याणी : कातर न ही सुग्न-दुःव मदा एक मा नहीं रहता। जिस दुःस्व मिलता है उसे मुन्च भी मिलता है । ग्य के पहिये की तरह ये दानां क्रम क्रम से किरा करते हैं। कभी सुन्त्र सामने आ जाता है कभी दुग्न ।
'कार्तिक की अवोधिनी (देवठानी) एकादशी को जब शारङ्गपाणि भगवान् विष्णु शेषशय्या में उठेग, कुवेर के शाप का अन्त हो जायगा । अब कंवन्न चार हो महीने बाको हैं : इन महाना को भी न किसी नरह आंद मूंद कर काट दे . शाप को अवधि समान होने पर, शरञ्चन्द्र की चन्द्रिका छिटकी हुई रानों में हम दोंनों फिर मिलेंगे ! दुःखदायी वियोग ने हमारे हृदयों पर परम्पर मिलने के जिन अभिलापो को बहुत ही बढ़ा दिया है वे सब उम समय अच्छी तरह पृशा हो जायगे हम लोग आज-कल जो तरह तरह की कामनायें कर रहे हैं वे उस समय मभी मफल हो जायँगी। जो बातें इस समय ननामादक हो रही हैं उनका सुस्रो- पभोग उस समय हमें प्रत्यक्ष प्राप्त हो जायगा अतएव धीरज न छोड़। कुछ समय तक और टहर।
'मैं एक बात की याद दिलाता है। एक दिन तू सुख से सो रही थी। इतने में तू अकस्मात् जाग पड़ी और रोने लगी। मैंन बार बार पछा-क्या हुआ ? क्यों रोई ? बता वो। तव तून मुम-