(ग) तीसरी प्रति संवत् १७०४ की लिखी हुई महाराज काशिराज के पुस्तकालय की थी। यह संपूर्ण है।
(घ) चौथी प्रति संवत् १७२१ को लिखी हुई है। इसे भागवतदास ने छपवायाा है।
(ङ) छक्कनलाल की पुस्तक से लिखवाई हुई प्रति।
इनके अतिरिक्त वंदन पाठक तथा महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायणसिंह की छपवाई प्रतियों से भी सहायता ली गई थी।
हम लोग प्रतिदिन संध्यासमय हरिप्रकाश यंत्रालय में मिलते थे और रामायण का पाठ दुहराकर ठीक करते थे।
इस संबंध की एक घटना का मुझे स्मरण है। पंडित किशोरीलाल गोस्वामी उन दिनों सभा के उपमंत्री तथा रामायण उपसमिति के सदस्य थे। वे मासिक रूप में अपने लिखे उपन्यास छापते थे। उन्होंने सभा के छपे कागजों पर एक प्रार्थनापत्र महाराज रीवाँ के पास सहायतार्थ भेजा। हम लोगों में से किसी को इसका पता न था। महाराज रीवाँ ने वह पत्र सभा में भेजकर पूछा कि क्या इसका संबंध सभा से है। उनको तो उत्तर लिख दिया गया कि सभा से इसका कोई सबंध नहीं है पर पंडित किशोरीलाल से कहा गया कि आप उपमंत्री के पद तथा रामायण उपसमिति की सदस्यता से अलग हो जाइए। उनके स्थान पर उपसमिति में पंडित सुधाकर द्विवेदी चुने गए जिन्हें प्रूफ देखने का भार दिया गया, क्योंकि संपादन का कार्य प्राय समाप्त हो चुका था। इस प्रकार संपादित होकर यह ग्रंथ सन् १९०३ में प्रकाशित हुआ।