गई। उसे ऐसा भास होने लगा कि अब मैं नही बचूंगी। उसने अपनी दासी को बुलाकर कहा कि अब मेरे प्राणपखेरू उड़ा चाहते हैं। तू इस बालक को और मेरे सब आभूषणो को लेकर रातोरात अपनी सास के पास चली जा, नहीं तो मेरे मरते ही लोग इस बालक को फेंक देंगे। दासी बालक को लेकर चल पड़ी और इधर उसी दिन ब्रह्म मुहूर्त मे हुलसी ने शरीर छोड़ा। चुनियाँ धासी ने ५ वर्ष और ५ मास तक बालक को पाला-पोसा,पर एक साँप के काटने से उसकी मृत्यु हो गई। तब लोगो ने तुलसीदास के पिता को सँदेसा भेजा। उन्होने कहा कि हम ऐसे अभागे बालक को लेकर क्या करेंगे जो अपने पालक का नाश करता है। अस्तु, दैवी कृपा से बालक जीता रहा। इधर अनंतानंद के शिष्य नरहरियानंद को स्वपन में आदेश हुआ कि तुम इस बालक की रक्षा करो और उसे रामचरित्र का उपदेश दो। नरहरियानंद ने जाकर उस बालक को गांँववालों की अनुमति से अपने साथ लिया और उसका यज्ञोपवीत संस्कार कर विद्यारंभ कराया। दस महीने तक अयोध्या मे हनुमान टीले पर रहकर नरहरियानंद उसे पढ़ाते रहे। हेमंत ऋतु के लगने पर वे बालक को लेकर सरयू और घाघरा के संगम पर स्थित शूकरक्षेत्र में आए और यहाँ ५ वर्ष तक रहे। वहीं पर उन्होंने बालक को रामचरित्र का उपदेश दिया। वहाँ से घूमते-फिरते वे काशी पहुंचे और पंचगंगा घाट पर ठहरे। यहाँ शेषसनातन नामक एक विद्वान् रहते थे। उन्होने नरहरियानंद से उस बालक को मांग लिया और उसे सब शास्त्रो का भली भाँति अध्ययन कराया। १५ वर्ष तुलसीदास यहाँ