दिया जाता था। इस प्रकार १९०१ और १९०२ में सरस्वती निकलती रही और एक प्रकार से चल भी निकली। अंत में मेरे प्रस्ताव पर यह निश्चय हुआ कि सरस्वती के संपादन का स्वतंत्र प्रबंध होना चाहिए। मेरे अलग होने का मुख्य कारण समय का अभाव तथा मेरी आर्थिक कृच्छता थी। इसके संपादक पंडित महावीरप्रसाद चुने गए। इंडियन प्रेस की प्रशंसा करनी चाहिए कि उसने प्रारंभ से ही द्विवेदी जी को उनके कार्य के लिये मासिक वेतन दिया। जब उन्होंने इस काम को छोड़ा तब से प्रेस उन्हें पेंशन देने लगा और यावज्जीवन देता रहा। साथ ही यह बात भी है कि द्विवेदी जी ने बड़ी लगन के साथ संपादन-कार्य किया और सरस्वती की अच्छी उन्नति हुई। जब १९०३ के जनवरी मास से मैं इसके संपादनकार्य से अलग हुआ तब द्विवेदी जी ने मेरे संबंध में सरस्वती में यह नोट दिया। "जिन्होंने बाल्यकाल ही से अपनी मातृभाषा हिंदी में अनुराग प्रकट किया, जिनके उत्साह और अशांत श्रम से नागरी प्रचारिणी सभा की इतनी उन्नति हुई, हिंदी की दशा को सुधारने के लिये जिनके उद्योग को देखकर सहस्त्रश: साधुवाद दिए बिना नहीं रहा जाता, जिन्होंने विगत दो वर्षों में इस पत्रिका के संपादन-कार्य को बड़ी योग्यता से निवाहा, उन विद्वान् बाबू श्यामसुदरदास के चित्र को इस वर्ष के आदि में प्रकाशित करके सरस्वती अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करती है।"
चित्र के नीचे छपा था–
"मातृभाषा के प्रचारक, बिमल बी० ए० पास।
सौम्य शीलनिधान, बाबू श्यामसुदरदास।।"