पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मेरी आत्मकहानी
११७
 

पता चला कि अरण्य कांड से लेकर लंका के पूर्वार्ध तक की प्रति कहीं गायब हो गई। बहुत खोज की गई, पर कहीं पता न चला। यह भी ज्ञात न हुआ कि किसकी असावधानी या कृपा से ये पन्ने गायब हो गए। अंत में यह काम फिर से करना पड़ा। ऐसी ही एक घटना साहित्यालोचन के निर्माण के समय में भी हुई थी, जिसका उल्लेख यथा-स्थान होगा।

(२)सन् १८९९ मे इंडियन प्रेस के स्वामी बाबू चिंतामणि घोष ने नागरी-प्रचारिणी सभा से प्रस्ताव किया कि सभा एक सचित्र मासिक पत्रिका के संपादन का भार ले और उसे वे प्रकाशित करें। सभा ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया पर संपादन का भार लेने में अपनी असमर्थता प्रकट की। अंत में यह निश्चय हुआ कि सभा एक संपादकमंडल बना दे। सभा ने इसे स्वीकार किया और बाबू राधा-कृष्णदास,बाबू कार्तिकप्रसाद,बाबू जगन्नाथदास, पंडित किशोरीलाल गोस्वामी को तथा मुझे इस काम के लिये चुना। पहले वर्ष में इन पांचो व्यक्तियों के संपादकत्व में यह पत्रिका निकली,पर वास्तव में इसका सारा बोझ मेरे ऊपर था। लेखों का संग्रह करना,उन्हें दुहराकर ठीक करना तथा आवश्यकता होने पर उनकी नकल करवाना और अंत में प्रूफ देखना यह सब मेरा काम था। इसके लिये प्रेस से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं मिलती थी। इस अवस्था से अवगत होकर बाबू चिंतामणि ने यह निश्चय किया कि मैं ही इसका संपादक रहूँ। एक क्लर्क तथा डाक व्यय आदि के लिए प्रेस २०) रुपया मासिक देता था और उसका हिसाब प्रतिमास प्रेस को भेज