हिंदी-अनुवाद करने की आज्ञा प्राप्त कर ली थी और उसके प्रकाशित करने का भार इंडियन प्रेस ने ले लिया था। पहले तो इस ग्रंथ के अनुवाद होने में ही बहुत विलंब हुआ। जब अनुवाद प्रस्तुत हो गया तब इंडियन प्रेस में वह पड़ा रहा। अंत मे सभा ने इस अनुवाद की हस्तलिखित प्रति इंडियन प्रेस से लौटा ली और उसे स्वयं प्रकाशित करने का विचार किया। इस बीच में हिंदी-समाचार-पत्रों में इस ग्रंथ के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हुआ कि सभा-द्वारा इस का प्रकाशित होना सर्वथा अनुचित है। यह समय ऐसा था जब प्रत्येक कार्य में धार्मिक भावना घुस पड़ती थी और असहनशीलता तथा दूसरों के मत को जानने की अनिच्छा प्रबल थी। अस्तु, इस झगड़े को शांत करने के लिये मैने सभा से प्रार्थना की कि अनुवाद मुझे दे दिया जाय मैं उसे स्वयं छपवाऊँगा। सभा ने इस प्रार्थना को स्वीकार किया और कुछ मित्रों तथा परिचितों से २५)-२५) रु० लेकर इस पुस्तक के छापने का प्रबंध किया गया। इस प्रकार इसका प्रथम भाग सन् १९०४ के दिसंबर मास में प्रकाशित हुआ और क्रमश: इसके बाकी तीन भाग भी निकले। इसी द्रव्य से मैगास्थनीज की भारत-यात्रा का अनुवाद भी पंडित रामचंद्र शुक्ल से कराके प्रकाशित किया गया। इनकी बिक्री से आय होने पर जिन मित्रों ने रुपये दिए थे वे उन्हें लौटा दिए गए।
(४) सन् १९०१ की मनुष्यगणना के समय एक आंदोलन खड़ा हुआ जिसमें मैने प्रमुख भाग लिया। इस गणना के सुपरिंटेंडेंट मिस्टर रिजले ने यह सर्क्यूलर निकाला कि खत्रियों की गणना वैश्यो