पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मेरी आत्मकहानी
१२१
 

में की जाय। काशी में इसके विरुद्ध आंदोलन करने के लिये एक कमेटी बनी और रिजले साहब के कथन के विरुद्ध प्रमाण इकट्ठे किए जाने लगे। इस निमित्त बाबू जुगुलकिशोर, पंडित रामनारायण मिश्र और मैं तीनों कलकत्ते गए। डाक्टर श्रीकृष्ण वर्मन ने बड़े आदर और सद्भाव से हम लोगों को अपने यहाँ ठहराया। एशियाटिक सुसाइटी के पुस्तकालय की छान-बीन होने लगी और पंडित रामनारायण मिश्र सब सामग्री का संकलन तथा संपादन करने लगे। उसी सामग्री के आधार पर उन्होंने अंँगरेजी में एक लेख भी प्रस्तुत किया जो छापकर वितरित किया गया। यह विचार था कि किसी प्रधान नगर में एक खत्री-कांफ्रेंस करके इस आंदोलन को ऐसा रूप दिया जाय जिसमें रिजले साहब को बाध्य हो हठधर्मी छोड़कर न्याय का पक्ष ग्रहण करना पड़े। बरेली के बैरिस्टर मि० नंदकिशोर कक्कड़ ने अपने नगर मे इस कांफ्रेंस के करने का प्रबंध किया और जुलाई सन् १९०१ के आरंभ मे यह कांफ्रेंस वहाँ हुई। जब हम लोग कलकत्ते में काम कर रहे थे तभी हम लोगों को इस कांफ्रेंस के लिये सभापति चुनने की चिंता ने ग्रसित किया था। हम लोग चाहते थे कि ऐसा व्यक्ति सभापति चुना जाय जो सबसे अधिक प्रभावशाली हो। हम लोगो का ध्यान बर्दवान के खत्री-राजवंश पर गया। यह खत्रीवंश अत्यत संपन्न, प्रतिष्ठित और प्रभावशाली है। इस वंश के आदिपुरूष आबूराय हुए जो जाति के कपूर और लाहौर के रहनेवाले थे। सन् १६५७ में ये बंगाल में आकर रेकाबी बाजार (बर्दवान) के चौधरी और कोतवाल हुए। इनके लड़के बाबूराय बर्दवान परगने तथा अन्य