पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१३४

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मेरी भामकहानी १२९ है। इसमें हिंदी के चालीस लेखको और सहायका के सचित्र जीवन- चरित दिए हुए हैं। मेरी बहुत इच्छा थी कि इसमें पंडित महावीर- प्रसाद द्विवेदी का चित्र और चरित्र भी रहे पर यह इच्छा इस समय पूरी न हो सकी। इस समय तो द्विवेदी जी मुझसे रुष्ट थे और युद्ध-पथ पर आपढ़ थे। संपादित पुस्तके चंद्रावती अथवा नासिकेतोपाख्यान--सदल मिश्रलिखित जव कलकत्ते में मैं एशियाटिक सुसाइटी की हस्तलिखित पुस्तकों की नोटिस कर रहा था तब मुझे इस पुस्तक की प्रति वहां मिली थी। वहाँ से मैंने इसे मॅगनी मॅगाया। यह मेरे पाम रक्खी हुई थी कि एक दिन पंडित केदारनाथ पाठक पडित रामचंद्र शुक्ल को मेरे पास मिलाने लाए। उन्होंने कहा कि शुक्ल नी से कुछ काम लीजिए। उस समय शुक्ल जी मिर्जापुर के लंडनमिशन स्कूल मे ड्राइंगमास्टर थे। मैंने उन्हें चद्रावती को हस्तलिखित प्रति देकर कहा कि इसकी शुद्धतापूर्वक साफ-साफ नकल कर लाइए । कुछ दिनों के उपरांत वे उसकी नकल कर लाए। असल प्रति में घीच का एक पन्ना गायव था। इसको उन्होने वैसे ही छोड़ दिया था। मैंने इसकी पूर्ति संस्कृत प्रय से की और यह अंश छपी प्रति में कोष्ठकों में दिया गया है। इस मंथ के संबंध से पहले पहल मेरा परिचय पंडित रामचंद्र शुक्ल से हुआ। फा.९