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मेरी आत्मकहानी
 

कोश, श्रीधरकोश आदि छोटे-छोटे और भी कई कोश निकले थे। जिनमें हिंदीशब्दों के अर्थ हिंदी में ही दिए गए थे। इनके अतिरिक्त कहावतो और मुहावरों आदि के जो कोश निकले थे,वे अलग है।

इस बीसवीं शताब्दी के आरम से ही मानो हिंदी के भाग्य ने पलटा खाया और हिंदी का प्रचार धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसमें निक्लनेवाले सामजिक पत्रो क्या पुस्तकों की संख्या भी बढ़ने लगी और पढ़नेवाला की सख्या में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी । तात्पर्य रह कि दिन पर दिन लोग हिंदी-साहित्य की ओर प्रवृत्त होने लगे और हिंदी पुस्तके चाव से पढ़ने लगे। लोगों में प्राचीन काव्यों आदि को पढ़ने की उत्कंठा भी बढ़ने लगी। उस समय हिंदी के हितैपियों को हिंदी भाषा का एक ऐसा वृहत् कोश तैयार करने की आवश्यकता जान पड़ने लगी जिसमे हिंदी के पुराने पद्य और नये गध दोनों में व्यवत होनेवाले समस्त शब्दों का समावेश हो,क्योंकि ऐसे कोश के बिना आगे चलकर हिंदी के प्रचार में कुछ बाधा पहुंचने की आशका थी।

काशी-नागरी प्रचारिणी सभा ने जितने बड़े-बड़े और उपयोगी काम किए हैं, जिस प्रकार प्राय उन सबका सूत्रपात या विचार सभा के जन्म के समय,उसके प्रथम वर्ष में हुआ था, उसी प्रकार हिंदी का वृहत् कोश बनाने का सूत्रपात नहीं तो कम-से-कम विचार भी उसी प्रथम वर्ष में हुआ था। हिंदी में सर्वागपूर्ण और वृहत् कोश का अभाव सभा के सचालकों को १८९३ ई० मे ही खटका था और उन्होंने एक उत्तम कोश बनाने के विचार से आर्थिक