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मेरी आत्मकहानी
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महानिधि और सेंट-पीटर्सवर्ग में प्रकाशित प्रचंड कोश की समकक्षता करनेवाला है। अपने देश की किसी अन्य प्रचलित भाषा मे निर्मित इस तरह का कोई अन्य कोश मेरे देखने मे नही आया। यह कई जिल्दी में है और गवमेंट तथा अन्य हिदी-हितैपियो-द्वारा प्रदत्त धन की सहायता से अनेक वर्षों के कठिन परिश्रम की बदौलत अस्तित्व मे आया है। यो तो वर्तमान और प्राचीन भाषाओ के अनेक कोश हैं और बड़े-बड़े हैं, पर जो विशेषता इसमे है वह शायद ही किसी और में हो। यह काम किसी एक ही मनुष्य के बूते का था भी नहीं। यदि समा इसके निर्माण के लिये दत्तचित्त न होती तो किसी एक ही सब्जन के द्वारा इसकी रचना कम से कम, इस समय तो असंभव ही थी। अतएव इसके संपादक और विशेष करके प्रधान संपादक, बावू श्यामसुंदरदास वी० ए० समस्त हिंदी-भाषा-भाषी जनसमुदाय के धन्यवाद के पात्र हैं। परमात्मा उन्हें दीर्घायुरारोग्य दे और उनका सतत कल्याण करे।”

यह सब हुआ; पर साहित्य-सम्मेलन के कान पर जूँ तक न रेंगी। न उसने सभा को बधाई दी और न उनका कोई प्रतिनिधि ही उत्सव में सम्मिलित हुआ। अस्तु यहाँ पर इस कोश के सबध में कुछ विशेष बातो का उल्लेख करना चाहता हूँ।

(१)कोशकार्यालय का निरीक्षण करने के लिये एक छोटी कमेटी थी। जब तक मैं काशी में रहा, मैं ही इसका सयोजक रहा। मेरे काश्मीर चले जाने पर पंडित केशवदेव शास्त्री संयोजक बने। वे बडे चलते-पुर्जे और उन आर्यसमाजियों मे से थे जो सब बातो