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मेरी आत्मकहानी
 

में अपनी टाँग अड़ाते हैं और अपना अधिकार प्रदर्शित करने के लिये सब कुछ कर बैठते है। स्वभावत, अन्य आर्यसमाजी उनका पक्ष समर्थन करते थे। ये उस समय काशी में बैठक करते थे, इनमें कोशकार्यालय के कार्य करनेवालों से न पटी। ये चाहते थे कि सब लोग ठीक समय पर आवें और बराबर कार्य करते हैं तथा उनके काम की नाप जाँच निन्य होती रहें। पटित गमचंद्र शुद्ध कभी समय पर नहीं आते थे। उनकी प्रकृति ही ऐसी ढीली-ढ़ाली थी कि समय पर काम करना उनके लिये असंभव था। उनकी देखा-देखी और लोग भी देर से आते रहे। मैं स्वय इस बात से असतुष्ट था। मैने कई बेर इन लोगों को समझाया कि समय पर आया करें। पर किसी की प्रकृति और स्वभाव में परिवर्तन करना मेरी शक्ति के बाहर था। साथ ही मैं इस बात के भी पक्ष में नहीं था कि साहित्यिक काम की जाँच-पडताल तराजू पर तौलकर की जानी चाहिए। सारांश यह कि मनोमालिन्य बढ़ता गया और मुझे ऐसा अनुभव होने लगा कि इस अवस्था से काम बिगढ़ आयगा। साथ ही मैं सब बातों में न कायकर्ताओं का पक्ष समर्थन कर सकता था और न पंडित केशवदेव शास्त्री का पक्ष ले सस्ता था। कई बेर समझौते का उद्योग हुआ, पर जब काम का ठीक-ठीक प्रबंध न हो सका तब मैंने हारकर इस काम से अलग हो जाने की प्रार्थना की। पडित केशवदेव शास्त्री के पक्ष में विशेपत, पंडित रामनारायण मिश्र, बाबू गौरीशंकरप्रसाद और बावू शिवप्रसाद गुप्त थे। अन्तर्गोष्टी में यह ठहरा कि पहले कोई संपादक ठीक कर लिया जाय तब