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मेरी आत्मकहानी
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सहायता की, सब अवसरों पर उन्हें उत्साहित कर-करके उनसे ग्रंथ लिखवाए, उन्हें छपवाया और पुरस्कार दिलाया तथा सदा उन्हें आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया, उसके प्रति यह “उदारता” शुक्ल जी या उनके जैसे लोगो को ही शोभा दे सकती है। इस सबंध मे मैं इतना और कह देना चाहता हूॅ कि मैंने इन सब बातो को उपेक्षा की दृष्टि से देखा; पर जिस पेड़ को मैंने लगाया उसे काटने की बात तो दूर रही, उसे कभी खरोच लगने तक का मैने कभी स्वप्न भी नहीं देखा।

(६) कोश में कुछ जातियो का भी संक्षिप्त विवरण दिया गया है। कुछ लोगो को यह भ्रम हो गया कि यह तो हमारी जाति के विषय मे एक प्रकार की शास्त्रीय व्यवस्था होगी। इस पर कुछ लोगो ने आपत्ति की। उनके पत्र समय-समय पर नागरी-प्रचारिणी पत्रिका मे छाप दिए गए। पर भूमिहार ब्राह्मणो को विशेष आपत्ति थी। उन लोगो ने एक दिन कत्वौरी गली में लाला भगवानदीन पर आक्रमण किया। पर लाला भगवानदीन यों दवनेवाले न थे। उन्होने गया की “लक्ष्मी” पत्रिका में विस्तारपूर्वक इस जाति का विवरण दिया। बाबू इंद्रनारायणसिह के पुत्र बाबू कवीद्रनारायणसिह ने काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा की प्रबंध-समिति में मेरे विरुद्ध भी भर्त्सना का प्रस्ताव उपस्थित किया, पर वह स्वीकृत न हुआ। सच तो यह है कि भारतवर्ष में जाति-पाॅति के झगड़ो ने कितने ही उपद्रव मचाए हैं। जाँच-पड़ताल करके तथ्य पर पहुॅचने की प्रवृत्ति नहीं है। समी जातियों के लोग अपने को क्षत्रिय या ब्राह्मण सिद्ध करने के उद्योग मे रहते हैं। किसी-किसी जाति के लोग शास्त्रीय मर्यादा का