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मेरी आत्मकहानी
 

लिखे हैं?” मैंने उत्तर दिया―“मेरा लिखा केवल साहित्य का इतिहास है; भाषा का इतिहास बाबू श्यामसुंदरदास का लिखा है।” इस पर मि० तकरू बोले―“भाषा का इतिहास जहाँ समान हुआ है वहाँ तो बाबू श्यामसुदरदास जी या और किसी का नाम नहीं है। हाँ, जहाँ साहित्य का इतिहास समाप्त हुआ है वहाँ आपका नाम दिया है।” मैंने उत्तर दिया―“पहले निश्चित हुआ था कि दोनो इतिहासों में (शब्द-सागर के अतर्गत) किसी का नाम न दिया जाय, पीछे जब साहित्य का इतिहास प्राय छप चुका तब विचार बदल गया और मेरा नाम उसके अंत मे दे दिया गया।” बातचीत हो जाने पर मि० तकरू ने कहा कि मैंने ये बातें “अभ्युदय” के प्रतिनिधि के रूप में आपसे पूछी हैं।

केवल पाँच मिनट तकरू से और मुझसे बातचीत हुई थी। मुझे स्मरण आता है कि उस समय पंडित चन्द्रवली पाँडे भी वहाँ मौजूद थे। उन्ही के सामने ऊपर लिखी बातचीत हुई थी।

मैं “अभ्युदय” ढुँढ़वा रहा हूँ। मिलने पर देखूँगा। यदि जो बातें मैंने तकरू से कही थी उसके विरुद्ध या उससे अधिक कुछ “अभ्युदय” में छपा होगा तो उसका खंडन करना मेरे लिये बहुत ही आवश्यक है।”

मैं नहीं कह सकता कि शुक्ल जी को “अभ्युदय” का वह अंक मिला या नहीं। हाँ, उनका खंडन तो अब तक देखने मे नहीं आया। जिसने लंदन मिशन स्कूल से खींचकर साहित्य के महारथियो मे स्थान पाने योग्य उन्हें बनाया, जिसने सदा उनकी