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मेरी आत्मकहानी
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९५ और ९६ में मैंने लॉ-लेक्चर्स भी सुने। यह पढ़ाई न थी, केवल हाजिरी ली जाती थी। दस मिनिट में क्लास समाप्त हो जाता था। बाबू जोगेंद्रचंद्र घोष लॉ-प्रोफेसर थे। इस प्रकार कालेज की पढाई समाप्त हुई। इस विद्यार्थी जीवन की दो-एक घटनाएँ मुझे याद हैं जिनको मै लिख देना चाहता हूँ।

हमारे अँगरेजी के प्रोफेसर मिस्टर जे॰ जी॰ जेनिंग्‌स थे। वे बड़े विचित्र स्वभाव के थे। मानो वे नौकरशाही शासनप्रणाली के साक्षात् प्रतिनिधि थे। न किसी से मिलना और न कुछ बात करना उनका सहज स्वभाव था। लड़कों ने भी उन्हें दिक्क करना प्रारंभ किया। जब उनका मुँह दूसरी तरफ होता या नीचे होता तो दो-एक शैतान लड़के रबर के फंदे से उन पर कागज के टुकड़े फेंकते। इससे उनका चेहरा लाल हो जाता था। एक दिन बी॰ ए॰ क्लास में उन्होंने अँगरेजी-शिक्षा पर निबंध लिखने के लिये विद्यार्थियों को आदेश दिया। मैंने भी लिखा। वे विद्यार्थियों को बुलाकर अपनी चौकी पर, जिस पर उनकी कुर्सी और टेबुल रहता, खड़ा करके निबंध पढ़ाते थे। मैं भी यथासमय बुलाया गया। मैंने निबंध अँगरेजी शिक्षा के विरोध में लिखा था। एक वाक्य मुझे अब तक याद है It damps the spirit of the Educated इस पर प्रोफेसर साहब बहुत लाल-पीले हुए। मेरे लेख का संशोधन नहीं किया गया और न वह लौटाकर ही मुझे मिला। प्रिंसपल साहब से मेरे विरुद्ध रिपोर्ट की गई और मैं उनके सामने बुलाया गया। उन्होंने मुझे समझा-बुझा कर मामला शांत किया, पर मिस्टर जेनिंग्‌स कभी प्रसन्न न हुए और